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Friday, March 28, 2014

28-03-2014


  • अरसे बाद सूर्योदय के पहले ही जाग गया.दंतमंजन किए बगैर पैरों में चप्पलें डाल,घड़ी और मोबाइल लिए चल पड़ा सोची समझी राह पर जिसकी मंझिल एक नदी का आमुख था.अखबार की खबरों से पहले मैं अपने शहर से मुखातिब होना चाहता था.अखबार के बारे में अंदाजा था कि वहाँ कल हुए जौहर मेले की शोभायात्रा और राज्य की मुख्यमंत्री के ताज़ा दौरे का ब्यौरा छपा होगा.चुनावी रपटें छपी होगी.साहित्य और संस्कृति की कम कॉलम में समाई खबरों के बीच क्राइम की लीड खबरें आमुख पर चस्पा होगी.खैर,दिनभर की थकान और रात के थोड़े से आराम के बाद फिर चल पड़ती उन अलसाई सड़कों की कुशलक्षेम पूछना चाहता था सो चल पड़ा.आज सूरज से पहले मैं नदी से मिल आया.ये मिलन अपेक्षित और तयशुदा था.नदी रातभर से बह रही थी लगा सोयी ही नहीं है शायद.एक बारगी लगा वैसे भी इस धरती को सँभालने में स्त्री शक्ति का ही तो योगदान है जिसे इस नदी की तरह अब तक कभी भी पूरी क्रेडिट नहीं दी गयी.चिंता के नाम एक पहर.लगे हाथ सामने पहाड़ निहार आया.ये चित्तौड़ का किला था जहां इतिहास के खाते में तीन जौहर हुए.पद्मिनी,कर्मावती और फूलकंवर जैसे रानियों के निर्देशन में हुए.पंछियों की चहचहाट लगा सबसे पहले सुनने वाले एक झुण्ड में मैं भी शामिल था.आँगन बुहारती औरतें,पानी भरते मरद और छुट्टी का मौक़ा देख बेट-बल्ले संभालते छोकरे देखे.जल्दी उठ बैठे और फिर भौंकते कुत्ते भी इसी सुबह का हासिल था.अँधेरे से उजाले में आते चित्तौड़ को दिनों बाद देखा और समझा.ये शहर की वो शक्ल हो सकती थी जिसे अमूमन हम देख और समझने का जतन ही नहीं कर पाते हैं.भाई हमारे दादेरा औए नानेरा में आज तक किसी को डायबिटीज और बीपी नहीं हुयी भला हमें क्यों हो,बस सेहत ज़रूरी है सो घूमना-घामना शुरू.अभी मोर्निंग वॉक के नाम से ये चार किलोमीटर चल गंभीरी नदी से मिलने का फेरा इसी योजना का हिस्सा था.साफ़ पानी में हिलता हुआ आकाश देख लगा कुछ भी काम मुश्किल नहीं है.ताज़ा हवा से बतियाने और खुद के प्रश्नों पर खुद ही उत्तर देने में मुझे बड़ा आनंद आया.ये खुद से बातचीत का मुकम्मल मौक़ा था जैसे.जीवन और नदी दोनों का बहाव देखा और सोचा.सुबह सवेरे का जीवन एकदम विलक्षण .बहुमंजिला इमारतों के साथ छत विहीन घर भी देख आया.एक साथ कई तरह का जीवन स्तर.बंद रेलवे फाटक के साथ ओवर ब्रिज की खबर ले आया.पटरियां देखी जिन पर शहर में पहूँचती अलसुबह की ट्रेन देखी.ट्रेन एक गाँव की माफिक लगी जहां लोग नींद से जाग कर अपना स्टेशन आता देख बच्चों को जगाने लगे,चादरे समेटने लगे,मूँह धोकर थैले-पाटी संभालने लगे.सबकुछ रुककर देखने और समझने लायक.नदी के पड़ौस में झाड़ियों के बीच से आज की लकड़ियों का जुगाड़ जमाती घुमक्कड़ युवतियां और जलते हुए चूल्हे देखे.नदी में नहाते आदिवासी युवक और अपने में खोयी सड़क से मिल आया.एक आदिवासी प्रौढ़ मिला.पीपलखूंट का रहने वाला.दस बीघा ज़मीन है.अभी खेती घर वाले दूजे सदस्य कर रहे होंगे वो मजदूरी के लिए यहाँ चित्तौड़ आया हुआ था.चित्तौड़ में काम ठीक मिल जाता है.यहाँ का मौसम मनमाफिक है.यहाँ के लोग और ठेकेदार समय पर पैसा दे देता है.सन उन्नीस सौ अठ्ठासी का दसवीं पास है.कहता है उसकी बेटी चित्तौड़ कॉलेज में पंद्रहवीं में पढ़ती है.मैं खुश हुआ दिनों बाद अब तक की बातों में मुझे ये सुखद खबर मिली.बताया बेटा दसवीं में है.लडकी होस्टल में रहती है.लडकी की पिता कल ही उससे मिल आया था.कह रहा था हमारे समाज में नौकरियां बहुत है मगर लोग बच्चों की पढ़ाई छुड़ाकर मजूरी करवातें हैं.खैर ये मुलाक़ात इस सुबह मेरे लिए तसल्ली की तरह थी.दिमाग में अब तक के मानदंड फिर से करवट ले रहे थे.म्रोनिंग वॉक की वापसी में ऊंघते हुए होर्डिंग देखे.बंद दुकानों के बाहर रात गुजारकर उठते ही बीड़ी फूँकते जातरी देखे.ठहर कर साँस लेती जेसीबी मशीने देखी और रास्ते की होटलों पर अपनी चाय के ऑर्डर के बाद चाय को इंतजारते आदमी देखे.साग-भाजी का थैला जमाता दुकानदार और किराणे की दूकान के सामान झाटकता-बुहारता साहूकार भी इसी सुबह की उपज थी.उजाला बढ़ने के साथ ही वॉक करने वालों की संख्या में इजाफ़ा अचरज का विषय नहीं था.घर आकर अखबार पढ़ा अंदाज़े के मुताबिक खबरें सही रूप में छपी मिली.मगर मैं जिस अखबार को अपनी आँखों,कानों और पांवों से पढ़ आया उसका जवाब नहीं.
  • न्यू असाइंमेंट:घी से चुपड़ी रोटी बंद,दिन में दो किलोमीटर पैदल वॉक,चाय लगभग फीकी,तेल हो सके जितना कम,संस्थागत कामों में कुछ कम वक़्त,परिवार के साथ समय,बेटी अनुष्का के साथ बात-विचार,पत्नी से गिरस्ती के अनुसार पर्याप्त और मधुर संवाद,मित्रों में यथायोग्य आवाजाही,घर में रहकर भी 'घर' में रहने की सलाहें,साप्ताहिक रूप से एक दिन ऐसा जहां अखबार,टीवी,मोबाइल,और घड़ी अपनी साथ ना हो.
  • सागर सरहदी की बनायी फिल्म 'बाज़ार' देखी.अंतिम भाग ज़बरदस्त है जहां 'सरजू' से 'शबनम' की आख़िरी मुलाक़ात ने मुझे रुला दिया वहीं शाकीर अली से शबनम के ज़बरन निकाह के बाद शबनम का खुदखुशी कर लेना और इधर नजमा का अख्तर से निकाह के लिए साफ़ मना कर देना आज की स्त्री शक्ति की तरफ से मर्द्जात को करारे जवाब हैं.समाज में रिश्तों के बीच पसरते बाज़ार को हमें समझना होगा.हालाँकि शबनम के खुदखुशी के फैसले से मैं सहमत नहीं हूँ मगर फिर उसके परिवार की गरीबी के हालात के चलते उसकी भारी मजबूरी को समझ सकता हूँ.कुलमिलाकर बहुत ज़रूरी सामाजिक मुद्दे पर बनी एक फिल्म है 'बाज़ार'.इसी बीच बतुल मुक्तियार की बनायी एक फिल्म देखी 'लिल्की' बड़ी मझेदार फिल्म है.बाल फिल्म सोसायटी के बेनर से बनी फिल्म में पहाड़ी गाँव की लड़की का शहर से परिचय और असहज के बाद सहज होने की कहानी है.
 
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