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Friday, February 7, 2014

07-02-2014


  • हमारे कोटा,राजस्थान के नवाचारी प्रवृति से लबरेज प्रगतिशील साथी हैं सर्वेश सर्वेश में समय के साथ कई बड़े गुरुओं की संगत का असर साफ़ दिखता है.गहरी सोच के साथ आगे बढ़ता हुआ दोस्त है सर्वेश.'कैलीग्राफी' जैसी नायाब और लुप्त होती कलाकारी को लेकर सर्वेश ने एक लम्बी स्टडी की है.उसी स्टडी से निकली एक ख़ास उपज है सर्वेश की बनायी डॉक्युमेंट्री 'नाचते अक्षरों के आँसू' जो यूट्यूब पर भी मौजूद है.
  • ज़िक्र आनंद पटवर्धन साहेब का हैं.एक विचार के साथ डॉक्युमेंट्री सिनेमा में बड़ा अवदान कर चुके हैं जिन्होंने सन पिचासी से अभी तक हमें 'हमारा शहर','राम के नाम','पिता,पुत्र और धर्मयुद्ध','जंग और अमन' सहित 'जय भीम कामरेड' जैसी नायाब और हथियारनुमा फ़िल्में दीं है.उनकी फ़िल्में गुदगुदाती नहीं है.कल्पना के संसार वाले झंझट में नहीं फंसाती है.हमें अपनी ही हक़ीक़त दिखाकर चिढ़ाती है.वक़्त को बांधने और उसे उद्देश्यपरक विश्लेषण के साथ फिर से याद दिलाने का महती ज़रूरी काम किया है आनंद साहेब ने.उन्हें सुनना और उनकी फ़िल्म से गुज़रना खुद के दौर का उगड़ा हुआ सच कबूलना है.उनकी एक ताज़ा फ़िल्म 'जय भीम कामरेड' का अंगरेजी वर्जन यूट्यूब पर मौजूद है.वक़्त मिले तो अपना क़ीमती वक़्त यहाँ खर्च कीजिएगा।मैंने यह फ़िल्म उदयपुर में प्रतिरोध का सिनेमा के तहत आधी ही देखी थी सो लक्ष्मण जी व्यास से सीडी मांग कर फिर पूरी देखने तक सो नहीं पाया था.
  • मित्रो,फ़िल्में महज मनोरंजन के हित नहीं बनायी जाती है.इस बाबत अपनी दृष्टि में साफ़-सफाई के लिए हमें मुख्यधारा के सिनेमा में वक़्त जाया करने के बजाय विचार को सही दिशा में ले जाना है तो जान लें कि डॉक्युमेंट्री सिनेमा का इसमें बहुत बड़ा योगदान है.सिनेमा की यह नयी और प्रतिरोधी धारा बदलाव और गंभीर विचार की तरफ हमें बढ़ाती है.फ़िल्म एक्टिविस्ट अपनी सक्रियता से हमारे समाज का यथार्थ यहाँ उकेर रहे हैं जिससे हम अकसर मूंह मोड़ते रहे हैं.इन फ़िल्मों को देखने के बाद आदमी तालियाँ नहीं बजाता बल्कि बड़ी देर तक के लिए उदास हो जाता है.चिंतन के मोड में चला जाता है.उसे फ़िल्म की समाप्ति पर कई मुद्दे आ घेरते हैं.वह अपने आसपास की संकटकालीन स्थितियों को समझने लगता है.हमारे समाज की अलार्मिंग पॉजिशन से हमें वाकिफ करवाने का काम यह डॉक्युमेंट्री सिनेमा करता रहा है.लाइफ की रियलटी से सामना करने की हिम्मत है तो इस तरह की फ़िल्मों का रुख करना चाहिए.मिलेंगे-बैठेंगे-चर्चा करेंगे तो नज़र ओर पैनी होगी.दिशा ज्यादा सही हो सकेगी।
 
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