Loading...
Saturday, November 16, 2013

16-11-2013


  1. क्या नज़र लगने से बचाने के लिए फेसबुक पर काले डोरे या काजल टीके का इंतजाम नहीं है?,काला निशान राजेन्द्र जी के वदन(मुखड़ा) पर तो दिख जाएगा मुझ जैसे लगभग काले वदनछाप मुखड़े पर तो वो भी नहीं दिखेगा . राजेन्द्र जी में गोरेपन सरीखे अच्छे गुण सहित कई सारे लक्खण हैं कभी कभी गर्व मिश्रित ईर्षा होती है (नोट :सारे लक्खण पर कभी वक़्त मिला तो विस्तार से लिखूंगा ). राजेन्द्र जी की दंतुरित मुस्कान से उनके रोज मंजन करने की आदत पर सही होने का ठप्पा अपने आप लग जाता है मगर हम जैसे आलसी जैसी ही मुँह खोलते हैं दाँतों का पीलापन सारे मामले को खटाई में डाल देता है.(नोट:बीते सात सालों से तो मैं भी रोज दाँत मांजता हूँ मगर बचपन में मंजन देखा नहीं कोयले या बानी से दाँत रगड़ते थे वो भी तब जब माँ का ज्यादा ही जोर होता।मुझे इस बात की भी अनुभूति है कि अब कुछ भी कर लूं राजेन्द्र जी सरीखे दाँत हो नहीं सकते हैं हाँ पूरी बत्तीसी ही नकली बिठाएँ तो बात अलग है)राजेन्द्र बाबू मेरे लिए वो शख्स है जिन्होंने बड़भाई होने के साथ ही कई मसलों में एक गुरु की भूमिका निभाई है (ये अलग बात है कि कुछ मामलों में मैं भी उनका गुरु हूँ )ये सीखने-सीखाने का लेनदेन चलते रहना चाहिए।किसी भी रिश्ते को आगे बढ़ाते हुए प्रगाढ़ बनाने में इतना स्वार्थ तो ज़रूरी है.खैर इन दिनों की हिंदी पढ़ाई में उनके गले से लयबध्द निकले पदों को सुन रहा हूँ.कहने लायक ज्यादा ज़रूरी बात यह है पढ़ाते वक़्त देहाती भाषा में लपेट कर गप हाँकने और विशुद्ध हँसी-ठठ्ठा करने का उनका अंदाज चुराने और सीखने लायक है.उनका हास्यबोध और भीतर की व्यजनापरक उपमाएं बड़ी असरकारक होती है खासकर जब वे अपनी बातों में अपने गांव के जीवन से उपमाएँ और उदाहरण निश्चित अंतराल पर चिपकाते हुए बतियाते हैं (तारीफ़ कुछ ज्यादा नहीं हो गयी )
  2. जब विजयदान देथा 'बिज्जी दा' नहीं रहे तो मुझे उनका लिखा 'चरणदास चोर' याद आया ,उसका मंचन याद आया और याद आए हबीब तनवीर के साथ के कुछ दिन ( इन दिनों लग रहा है कि अच्छे लोग जल्दी जल्दी जा रहे हैं गोया राजेन्द्र यादव, रेश्मा, परमानंद श्रीवास्तव और अब बिज्जी )
  3. हमारे अग्रज साथी 'हरिराम मीणा जी' को उनके गम्भीर किस्म के ऐतिहासिक उपन्यास 'धूणी तपे तीर' के लिए जयपुर में बिरला फाउंडेशन के 'बिहारी सम्मान' से नवाज़ा गया.दिल खुश है.
  4. सवेरे-सवेरे राजेन्द्र बाबू से अज्ञेय की लम्बी कविता असाध्य वीणा पढ़कर आया अब जानेमाने चित्र वीणा वादक रविकिरण जी का वादन सुन रहा हूँ,यहाँ ।स्पिक मैके आंदोलन का भी शुक्रिया कहना चाहूँगा कि इस छात्र आंदोलन ने मुझे रवि किरण जी को सुनने के कई संजीव मौके उपहार दिए (जब भी लम्बी फुरसत मिलती है,थकान अनुभव करता हूँ या फिर अपनी जीवन शैली में लय की कमी होती है तो मैं लोक/शास्त्रीय संगीत की शरण में आ जाता हूँ,वैसे इस तरह संगीत सुनते हुए एक सुविधा यह भी है कि मैं अपना घर-गिरस्ती के काम भी निबटाते रहता हूँ.
  5. कुछ बड़े लोग (काम/चिंतन/योगदान की वजह से नामी) जिनसे मिल/देख/सुन/ नहीं पाया उनके लिए दिल में बड़ा मान रखता हूँ.चुन-चुन कर उनके ऑडियो/वीडियो सुन/देख रहा हूँ.यूट्यूब ज़िंदाबाद।आज की शाम सिर्फ और सिर्फ गम्भीर किस्म के कलाविद वायलिन वादक वी जी जोग
  6. हमारे 'कनक बाबू' से पढ़ने समय मुझे दूसरे तार सप्तक के मुख्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र('भवानी दादा' ज्यादा अच्छा लगता है ) की एक ज़रूरी छंदोबद्ध कविता हाथ लगी 'घर की याद' . एकदम सीधा-सीधा अर्थ देती हुयी जिसे पढ़ते हुए लगा कि इन दिनों की कविताओं में गायब होती आतंरिक/बाहरी लय की तरफ यह कविता हमें कुछ तो संकेत करती है.जब भवानी दादा की बात चलती है तो मुझे होशंगाबाद याद आ जाता है.वहाँ की याद में नर्मदा नदी (जो सिर्फ नदी नहीं है),माखनलाल चतुर्वेदी(मेरे लिए भी वे 'पुष्प की अभिलाषा' वाले माखन लाल जी ही हैं )और हरिशंकर परसाई जी (इन्हे सभी जितना जानते हैं मैं भी लगभग उतना ही जानता हूँ ) की याद शामिल समझी जानी चाहिए। 
  7. हमारी श्रीमती कह रही है कि दुनिया का सबसे भोला आदमी मैं(माणिक ) हूँ । (कितनी भोली है ) 
  8. कुछ चेहरे और उनका काम/तपस्या/रियाज़/घुमक्कड़ी/संगत/विचार/गायन कभी भी हमारी चर्चाओं में आसानी से नहीं आ पाते हैं। ऐसी ही लुप्तप्राय शक्लों में अपना इंटरेस्ट है गोया पंडित मुकुल शिवपुत्र ,उन्हें सुनना और उनसे मिलना एक ही बार हुआ. साल 2006 में बनारस में.जब मुझे शास्त्रीय संगीत नाम की चिड़िया का ककहरा भी नहीं आता था (पंडित कुमार गन्धर्व के बेटे और विलक्षण गायक मुकुल जी जिनके नाम के आगे 'अद्वितीय' लगाने का मतलब भी अद्वितीय ही होता है)
  9. यह चित्र साल दो हजार छ: का होगा जब हमने स्पिक मैके राजस्थान इकाई की तरफ से एक राष्ट्रीय अधिवेशन का आयोजन जयपुर के ज्ञान विहार इंस्टिट्यूट में किया था.खुद की तारीफ़ करने की मित्र इजाज़त दें तो स्वयंसेवा में अद्वितीय उदाहरण कह सकते हो ।हजारों फोन कॉल्स को हेंडल करता यातायात व्यवस्था का संयोजक तब का माणिक।एकदम भुखमरी के प्रदेश का नमूना समझ सकते हैं.तब मैं बेरोजगार/कुँवारा/फक्कड़ किस्म की वृति वाला था.तब हमारे आंदोलन में आपसी माहौल बड़ा अनौपचारिक रिश्ते पैदा करने वाला हुआ करता था ।वक़्त के साथ जब सबकुछ बदल गया है तो कौन अछूता रहता है?,तब के दौर में दुनिया के एक पक्ष को समझने में मेरी मदद करने के लिए मुझे हमेशा जयपुर के राजिव टाटीवाला Rajiv Rajeev Tatiwala,संदीप चंडोक Sandeep Chandokeऔर कोटा के अशोक जैन Ashok Jain की बहुत याद आती है छायाचित्र के लिए जयपुर के महेश स्वामी जी का शुक्रिया कहना चाहता हूँ )
  10. आदमियों को अवतार बनाने की इस संस्कृति में मैं पूछता हूँ यह 'सचिन' कौन है? ( सनद रहे वैचारिक अभिव्यक्ति की आज़ादी का खात्मा नहीं होना चाहिए )सचिन को कौन नहीं जानता(मैं भी जानता ही हूँ ) शायद आप मेरे कहे का अर्थ समझने के साथ ही बाज़ारवाद का गणित थाह सको
  11. चित्तौड़ में हैं तो ढ़ंग से ज़िंदा रहने के लिए एक मित्र मंडली गढ़ रखी है.घरों में आना जाना लगा रहता है इसी बीच खींचातानी/कमेंटबाजी भी चलती ही रहती है.कभी कभार मिलने के विशेष अवसर जुटाए जाते हैं जैसे आज राजेश चौधरी सरीखा लवली किस्म का आदमी(वे मेरे बड़भाई है उनके प्रति आदर के लिए अलग से कभी संस्मरण लिखूंगा )और भाभी सुमित्रा जी आ रहे हैं.मिसेज ने उनके लिए दाल-ढोकले बनाये हैं मैंने उनके लिए कमरे को स्प्रे करके बैठने लायक बना दिया है.हाँ तकियों पर नयी खोल भी मैंने ही चढ़ाई है.कछुआ छाप अगरबती भी मैंने ही जलाई।

    मेहमान सरीखा होने की कोशिशों से बहुत पीछे का आदमी राजेश चौधरी वो इंसान है जिसने कभी ब्यावर में कॉलेज में पढ़ाते समय शमशेर और रघुवीर सहाय की एक-एक कविता समझने में नहीं आने पर वे टेंशन में आकर दो दिन की छुट्टी चले गए.अवकाश के उन दिनों में जयपुर में बसे दो बड़े नामचीन विद्वानों से कविता का अर्थ जानने गए मगर अन्तोगत्वा शांति नहीं मिली।उन्हें शान्ति तब मिली जब वे दोनों के दोनों कवि (शमशेर और रघुवीर सहाय )सिलेबस से ही हट गए.
  12. आज सवेरे कनक भैया से पढ़ी अवतार सिंह पाश और निर्मला पुतुल की कविताओं ने ही गज़ब ढंग से घेर रख्खा है.पाश को पढ़ना खुद में आग सुलगाना है,खुद को दुरस्त करने के लिए आओ पाश को पढ़े.निर्मला जी ने आदिवासी अँचल की हक़ीक़त बड़े सहज ढंग से कही है.इन सभी भावों के बीच मुझे आभास हो रहा है कि नामवर जी के निर्देशन उनकी पूरी टीम ने इन सालों कक्षा नौ से बारहवीं तक की हिंदी पाठ्यपुस्तकें क्या गज़ब सिलेबस के साथ डिजाइन की है.तारीफ़ की जानी चाहिए।गदगद हूँ.

    एक बात ओर कि कनक भैया के पढ़ाने और कविता के सीधे अर्थ के साथ उनकी खुद की वैचारिकी अपनों में उंडेलने का जो अंदाज़/ज़ज्बा/यथासमय कदम होता है भा गया.खुली मानसिकता के साथ वे पढ़ने वाले मित्रों को वे जागरूक नागरिक बनाने की एक भी कोशिश खाली नहीं जाने देते।कटाक्ष करते हुए वे आदमी की वर्तमान जीवन शैली को जाने कितने तक छील देते हैं कि सोचना ज़रूरी हो जाता है.दिशा भ्रमित समाज की तरफ उंगली करते हुए वे ठीक रास्ता भी इंगित करते हैं यह अच्छी बात है वरना केवल बातूनी पहाड़ बनाना तो बहुत आसान है यह हम सभी जानते है.तो बोलो कनक बाबू की जय
 
TOP