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Saturday, September 21, 2013

21-09-2013


  1. पढ़ने के बजाय स्केन करने वालें पाठक क्या जानेंगे कि लेखक ने कौमा/मात्रा/नुक्ते का कितना ख़याल रखा है
  2. कुछ 'आमंत्रित' आमंत्रण पढ़े बगैर ही उसे उसे टेबल पर धर देते हैं कोई उन्हे सदबुद्धि दे.
  3. कवितायेँ लिखना,सोचना और मित्रों में पढ़ना अलग बात है मगर चयन कर चार अच्छी कवितायेँ छांटने में नानी याद आ रही है।
  4. कुछ 'पढ़ाकू' खूब जानते हैं मगर उनकी इतर आदतों को चलते उन्हें 'वक्ता' होने का सौभाग्य नहीं मिले तो उन पर क्या गुज़रती होगी? जानने का मन है
  5. इस बार भी कुछ लोग 'अतिथि' बनते-बनते रह गए जो सालों से 'अतिथि' बनने के आदी थे,सच कहें अच्छा नहीं हुआ
  6. इन दिनों की एक अनुभूति यह भी कि 'श्रोता या दर्शक' की भी एक न्यूनतम योग्यता तो होती ही है
  7. कुछ 'आयोजक' श्रोता ढूंढते हैं और कुछ 'श्रोता' आयोजन ढूंढते हैं
  8. कुछ 'जानकारों' को श्रोता या दर्शक के रूप में आना-जाना पसंद ही नहीं है
  9. कुछ लोग जन्मजात 'वक्ता' होते हैं
  10. 'माटी के मीत' आयोजन के क्रम में कॉलेज की अधिकृत हिन्दी प्राध्यापिका को फोन मिलाया.जवाब मिला, अरे माणिक जी आप भी आयोजन सन्डे को क्यों कर लेते हो? बहुत सारे काम निबटाने को एक ही तो दिन मिलता है सन्डे .ऊपर से सासुजी का श्राद भी उसी दिन पड़ रहा है.इतना सुनते ही मैंने क्षमा मांग ली. मुझे लगा मैंने हिन्दी की किसी प्रगितिशील प्राध्यापिका के बजाय कुशल गृहिणी को फोन मिलाया है जिन्हें यह अंदाजा तो नहीं ही होगा कि कैसे 'आयोजन' का जन्म होता है.आयोजक की पीड़ा कितनी असहनीय होती है.खैर हम बगैर निराश हुए आगे बढ़ रहे हैं.
  11. एक आयोजन में चित्तौड़ के विजन कॉलेज में प्रोफ़ेसर सरीखे मित्रों को एक शास्त्रीय गायन प्रस्तुति को तन्मयता से अंजाम देते देख और स्पिक मैके हेतु काम करते देख मन खुश हुआ.खुशी बयान करना मुनासिब नहीं है.बिना किसी औपचारिकता के वे पूरा समय तल्लीन थे.आज हुए लगातार पचास मिनट के शास्त्रीय गायन केप्सूल से मैं खुद को महीनों तक स्फूर्त अनुभव करूंगा।यहाँ इस प्रस्तुति के केंद्र में थीं प्रतिबद्ध गायिका डॉ मीता पंडित।उनका सार्वजनिक रूप से शुक्रिया।
  12. मीडिया सपोर्ट के बगैर कोई भी आयोजन अपनी सम्पूर्ण सफलता से कुछ दूर ही रहता है
  13. समाज के लिए 'बेकाम' के वे लोग हैं जिन्हें समर्थ होने के बावजूद खाने-कमाने और जाने के अलावा कुछ भी सार्थक नहीं सूझता है.यहाँ 'सार्थक' का अर्थ उस काम से है जिसका फायदा उन्हें स्वयं को छोड़ कर दूजों को मिलें।
  14. लगातार के 'काम' के बीच जाने क्यों हमारे समाज पर बोझ सरीखे वे 'बेकाम' के लोग बार-बार याद आते हैं ?और फिर तभी से मेरे काम की गति और तेज़ हो जाती है.
  15. फिल्म संगीत को ही असल भारतीय संगीत समझना हमारी एक बड़ी भूली मानी जानी चाहिए।यह तो लगभग सौ साल पुराना है मगर सही मायने में भारतीय संगीत दस हजार सालों की प्राचीन विरासत वाला संगीत है। आज के दौर के तरह टीवी और रेडियो से एकदम जुदा तभी से हमारी संस्कृति में गुरु की भूमिका अलग ही मायने रखती रही है।गुरु की दी हुयी तालीम और सच्चे आखर ज्ञान से ही रोशनी संभव है। इस कठिन समय में हम कस्बाई इलाकों में जा-जाकर हमारी गौरवशाली विरासत की खुशबू बिखेर रहे हैं जब हमारे नयी पीढी के लिए शास्त्रीय संगीत की संगत में जाना मुनासिब नहीं है।तब जाकर हम सभी समाज सापेक्ष लोगों की भूमिका बढ़ जाती है।यह विचार देश के युवा कलाविद और सात्विक वीणा के निर्माता सलिल भट्ट ने स्पिक मैके के एक आयोजन में चित्तौड़ में व्यक्त किए।
  16. चित्तौड़गढ़ की पंजीकृत साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था 'अपनी माटी' अपने आगामी 'माटी के मीत-2' कार्यक्रम के दौरान एक लघु पत्रिका प्रदर्शनी भी लगा रही हैं।देशभर में लगातार बाद रही लघु पत्रिकाओं के प्रसार की पर्याप्त ज़रूरत है। युवा कवयित्री कृष्णा सिन्हा के निर्देशन में आयोज्य इस प्रदर्शनी में देश की बीस से भी अधिक प्रगतिशील पत्रिकाएँ प्रदर्शित की जाएँगी, साथ पाठकीयता में इजाफा करने के उद्देश्य से यहाँ आयोजन में पत्रिकाओं के सदस्यता की जानकारी संबंधी पर्चे भी बांटे जायेंगे।
  17. 'आयोजन' में माना कि 'झमेले' और 'अड़ंगे' बहुतेरे होते हैं मगर उन्हीं के बीच में से हमें कहीं एक 'तसल्ली' झांकती हुयी दिखती है सो हम लगे हुए रहते हैं। ये 'लगे हुए रहना' ही एक आदमी के 'ज़िंदा' होने की निशानी है.
  18. 'अंतिम संस्कार' से लौटने के बाद दिमाग में पहले से मौजूद संस्कारों में खलबली मच जाती है.
 
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