हिन्दी में नेट
की परीक्षा
के संकट
के चलते
सभी कुछ
पढ़ना ज़रूरी
है क्या?
दीदी ने
कहा बिलकुल।
थोड़ा सा
चुनाव भी कर
लो। पाठ्यक्रम जैसा कुछ है नहीं। कबीर, जायसी, तुलसी
और सुरदास
के साथ
मीरा पढ़
लो तो हो
गया भक्तिकाल।
मैं जोर
लगा के
बैठा बमुश्किल
सिद्ध-नाथ-जैन साहित्य
पढ़ता-गुड़ता
भक्तिकाल की
सीमा तक
आया। मन
रमाने के
लिए सबसे
पहले कबीर
को चुना
सोचा जो
मन-माफिक
हो उसे
पहले पढ़ो। तरकीब काम आ गयी और लौ लग गयी। दोहों के
मार्फ़त क्या
गज़ब की
बल्लेबाजी की है कबीर ने।
लगता है
हर मोहल्ले
में कबीर
के क्लोन
होने चाहिए।
कहने से
समझे तो
ठीक नहीं
तो लठ्ठमार
तरकीबें भी
है कबीर
के पास।
जीवन अनुभव
को पदों
में सीधे
लिख कबीर
फ़कीर हो
गया। इधर पदों
को पढ़
कितनों को
दिशा मिल
गयी।बड़े याद आते हैं कबीर। कबीर
को पढ़ने
के बाद
भी आप
तुलसी पर
मरे जाएँ
तो आपका
चुनाव।घर-गिरस्ती
के आनंद
के बीच
नाथपंथी के
विचार अपनाने
की सोचे
तो भी
बुराई क्या
है। बशर्ते
आपके पिताजी
के दो-चार औलादें
हों।तो जब दिल करे चल पड़े पहाड़ों में।
एक बेटा-एक
बेटी के
कोंसेप्ट में
कोई फ़कीर
या घुमक्कड़
बनना चाहे
तो भी
पोसिबल कहाँ।
बस हम
कबीर को
नए रूप
में ढ़ाल
अपना ज़रूर सकते
हैं। दिन
में भक्तिकाल
पढ़ते हुए
कबीर से
गुजरा।लगा शाम के वक़्त कुछ
कलाकारों को
सुन ही
लिया जाए
गोया बीकानेर
के मुक्तियार
अली, बिरहा
गायक प्रहलाद
सिंह तिपानिया,
गुलज़ार की
कमेंट्री के
साथ आबिदा
परवीन, कुमार
गंधर्व, मुकुल
शिवपुत्र या
फिर ठेठ
बाड़मेर के
महेशाराम मेघवाल
को। दिन
में जो
दोहे पढ़े
और उन्हीं
को शाम
के वक़्त
लयबद्ध सुन
दिल रम
गया। साथियों का आरोप भी है कि आप साहित्यिक कम सांस्कृतिक रूचि संपन्न ज्यादा लगते हो। इसीलिए मैं कुछ पन्ने पढ़ते ही कोई शास्त्रीय राग सुनने बैठ जाता हूँ। मगर अच्छी बातये है कि मेरे
राम भी
दशरथ पुत्र
राम नहीं
है।निराकार राम है।गृहमंत्री इजाज़त दे तो
घर में
मासिक संगोष्ठी
कर निर्गुणी
भजन की
धूणी लगा
दें।तम्बूरा, इकतारा, ढपली जैसा कुछ
हों और
कुछ कनफटे
साधु जिन्हें
गायन के
शबद याद
हों।बहरहाल यही कहना है कि
हर बारी
मन का
कहाँ हो
पाता है।
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इधर एक शहर पहली
बारिश में
भीज रहा
है। कुछ
छतें पानी
रिसाने की
मुद्रा में
आ गयी
हैं।कुछ दीवारें
नम गयी हैं।पेड़ की
सारी पत्तियाँ
पानी की बूँदें टप-टप
गिराने के
शेड्यूल बनाने
में मगन
है। आदिवासी मजदूर कुछ वक़्त के लिए फिर से पीपलखूंट, घाटोल और प्रतापगढ़ जाने की सोचने लगे हैं। बच्चे गर्मियों
के होमवर्क वक़्त पर नहीं
निबटा पाने
पर सहमें चेहरे लिए
टीवी की
तरफ मूंह
किए हैं।चिंतन और चिंता की शक्लें लिए। घरवाली
किसी मूंछकटे पति के आदेश
की पालना
में पकौड़ियाँ
तल रही
है। शहर में
कोई फ्री
नहीं है। एक
समाज नवमी
के जुलूस
में उमड़
रहा है
तो दूसरा
वेदपाठी विद्यार्थियों
को लेकर
तीस किलो
मीटर दूर
तक पदयात्राओं
के दौर
चला रहा
है। किले के
सारे कुंड तक तेज बारिश
की बाट
जो रहे
हैं। पिकनिक जाने की कई योजनाएं
अभी से
मूंह बाहर
निकालने लगी
हैं। वहीं शहर अपने
से जुड़े
इस तथ्य
पर रो
रहा है
कि यहाँ
भारत भवन,
भोपाल की
तरह कोई
जमाव स्थल
नहीं है। कोई
कॉफ़ी हाउस
नहीं है। एक तसल्ली है कि टीस-पीड़ाओं के
बीच मझोले
दर्जे के
आयोजन उपहार
देने की
सोच रखने
वाले सूत्रधार
भी इसी
शहर में
हैं जिनके पास कोई सरकारी ज़मीन
बना पुस्तकालय-ऑफिस नहीं
हैं।कोई बड़ी सरकारी ग्रांट उपलब्ध
नहीं है।शहर
में कोई
स्वार्थी आका
नहीं पाल
रख्खे हैं।ये जी-हजुरी के
कल्चर से
कोसों दूर
फक्कड़ किस्म
के कुछ
लोग घर-फूंक कर
आयोजनों
को अंजाम देने की हिम्मत
रखते हैं। कभी
कभार इसीलिए
लगता है कि शहर की
कुछ तो
इज्ज़त है।यही है एक डायरी में ज़बरन ठूंसे बेढंगे विचार।
एक हिन्दी का
प्रोफ़ेसर छुट्टियों
का सद
उपयोग कर
भोपाल की
कथाकार इन्द्रा
दाँगी का
कहानी संग्रह,
ममता कालिया
की आत्म
कथ्यात्मक पुस्तक, रवींद्र कालिया की
संकलित कहानियाँ,
बटरोही का
उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल, बनास जन पत्रिका का अंक जैसा
कुछ पढ़ने में दिन खर्च रहा
है। हिन्दी
का एक
वरिष्ठ अध्यापक
पाँव में
फ्रेक्चर किए
बैठी पत्नी
की सेवा
में लीन
हो गिरस्ती
धर्म निभा
रहा है। एक
लेखिका है
जो विवेकानंद
जी से
प्रभावित हैं
फिलहाल स्वयं
प्रकाश जी
पर आलेख
लिखने की
मुद्रा में
है।एक गुरुवर
हैं जो
राज्य की
अकादमी का
विशिष्ट साहित्यकार
सम्मान लेने
परगाम (दूजे गाँव) जाने
की तैयारी
में हैं। एक
और हिन्दी
पाठक है
जो बतौर पर्यावरण वैज्ञानिक हिन्दुस्तान में जिंक में
है वहीं
से एक
डायरी के
ज़रिये सारे
माजरे पर
नज़र रख्खे
हुए है।कुछ
हिन्दी के
नवजात साथी
अभी अभी
प्रीवियस के
पाठ्यक्रम में दाखिल हुए हैं।मामला
हिन्दीमय है।इसी
शहर में
हिन्दी के
कुछ ठूंठ
आयोजक कड़क
आदमी की
माफिक एकदम
गतिविधि विहीन
जीवन जी
रहे हैं।