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Saturday, June 1, 2013

01-06-2013

'मैं किसी भी बाउल गीत की प्रस्तुति/स्तुति के समय संगतकार की सुविधा को उस परम तत्व से मिलने में बाधक मानती हूँ।इसीलिए मैं कुछ समय हो गया अपने लिए ज़रूरी संगत के वाध्य यन्त्र खुद ही बजाते हुए बाउल जैसी शब्द गान परम्परा को आगे बढ़ा रही हूँ।आपको आश्चर्य होगा कि बाउल की शिक्षा -दीक्षा के आरम्भ करने से पहले मेरे गुरु ने कहा कि ''मुझे नहीं लगता कि आपमें ये फकीरी अंदाज़ वाली गायकी सीखने का माद्दा है।'' तब मैंने लगभग एक साल तक ट्रेनों में एक मस्त फ़क़ीर की तरह बेपरवाह होकर निर्गुणी भजन गाये।और आखिर में मेरे गुरूवर ने सीखाना मंजूर किया।बिना रोक-टोक के मैं सीखती गयी जो आज तक भी जारी है।।मुझे वाकई मालुम नहीं था कि शान्तिनिकेतन में अध्ययन के दौरान की परिवारजन के साथ एक ट्रेन यात्रा में सुने फ़क़ीर की अजाननुमा गायकी का मुझ पर इतना बड़ा असर पड़ेगा।''-(पारवती जी बाउल से जैसे मैंने चर्चा में सूना)
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घूमना भी एक कला है। और दूसरों के कन्धों से अपना काम निकालते हुए घूमना तो इससे भी बड़ी बाजीगिरी है। बिना किसी चूक किये यात्रा के सामान की लिस्ट बनाने की तरह यात्रा के भीड़-भचड़के में अपनी जेबें कटने से बचा लेना भी एक कला है।जेब कट जाने पर मित्रों को खबर तक नहीं होने देना दूसरी कला है।जहां यात्रा आदमी को चालाक और अवसरवादी बना देती है वहीं ये आदमी के एकलखुरे होने की प्रवृति को ख़त्म भी  करती है।यात्रा में अच्छा खासा नास्तिक भी धीरे-धीरे भगवान् के दर्शन में रूचि लेने लगता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।कभी-कभार तर्क-वितर्क वाला बुद्धिजीवी भी संकटमोचक हनुमान, त्रिदेव मंदिर, पीपलेश्वर महादेव, गंगा मैया, बाबा विश्व नाथ को हाथ जोड़ आता है।यात्रा में एक घबराया हुआ आदमी अपने आलिशान अंदाज़ को सर्वथा भूल कर गाजर गास मिश्रित दूब में सो जाता है।ए सी का आदी आदमी भी पसीने पोंछने की प्रक्रिया में एक अंगोछेनुमा नेपकिन कंधे पर डालकर चलता नज़र आता है।यात्राएं कई मर्तबा आदमी को आम आदमी होना सीखाती है।ज़मीन पर बैठने के आनंद वाली विचार श्रृंखला कब एक मजबूरी में बदलती हुयी यात्री को रेलवे वेटिंग रूम में फर्श नसीब कराती है पता नहीं चलता।यात्रा आदमी को बहुमुखी होने का मौक़ा देती है।बिचोलियों से बचने, होटल के बेरो से बतियाने, पंडों से बचते हुए मंदिर के गर्भगृह तक पहुँचने के गुर सीखाती है यात्रा।बारगेनिंग का सलीका और सहयात्रियों के दिल बहलाने का तजुर्बा भी किसी एक यात्रा से ही मुनासिब है।
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असल में चीजें दूर से नजदीक लगती है। दूर के किसी लोकप्रिय शहर में जाके देखो लग जाएगा कि शान्तिनिकेतन आसपास नहीं ढ़ाई घंटे के रास्ते पर है। फलां मंदिर और घाट नक़्शे में बहुत ही करीबी होगा मगर जाने पर पता चलेगा रास्ता पूछने और अल्टिमेटली रिक्शा करके पहुँच जाने में कितना  मगज खराब होता है। ये भी सच है कि घाट पर स्नान से सारा अनुभव एक नए अनुभव का चादरा ओढ़ लेता है।ठीक घंटे भर पहले की चिपचिपी गर्मी भी बदन को ठंडक देती लगती है। जूलोजी पार्क वहाँ नहीं है जहां तुम सोचके बैठे हो।टेम्पो इतने तेज नहीं चलते जितने अपने शहर में चलते होंगे। लीची इतनी महंगी नहीं हैजितनी तुम्हारी गली में आने वाला फ्रूट सेलर देता है। शहर देख कर चीज़ें रंग बदल लेती है।

अजीब तब लगा जब एक दरबान फाटक पर रोक ही लेता है।फिर चाहे आप राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मेंबर हो या कहीं के पार्षद।सारे नुस्खे एकदम फेल।दरबान अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में एक को भी फाटक के अन्दर नहीं आने देता और नियमों के आगे पाँचों के पाँचों की तथाकथित बड़ी पहचान दुनिया की सबसे छोटी और नकारा पहचान साबित होती है। ये वाकया तब हुआ जब देखा कि वेल्लूर मठ में दिन में किसी भगवान् के ओसरे की तरह स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पट भी बंद रहते हैं।मतलब दर्शन इतना आसान नहीं।सुन्दर वन बोलने में ही सुन्दर लगता है मगर उस दल-दल तक जाने के हित टेक्सी का किराया सुनके ही सुन्दर वन जाने का सुन्दर विचार त्यागने को प्रेरित होना पड़ता है।अरे हाँ घुमक्कड़ी में एक लिस्ट बनाके घूमना और देखे जाने वाले स्थान पर टिक-मार्क करते जाना तो नितांत गंवई अंदाज़ है भाई।अब उन साथियों को आप क्या समझायेंगे जो घर से ही सोच समझ के आये हैं जिनका एक पॉइंट देखने से छूट गया तो मानों स्वर्ग मिलते मिलते रह जाएगा। सच कबुलते हुए ये हाँ भरने में कोई हर्ज नहीं है कि हमने गंगासागर नहीं देखा।मदर टेरेसा का मुकाम नहीं देखा।सुभाष का घर नहीं देखा।बोटनिकल गार्डन नहीं देखा।हुगली में स्नान नहीं किया।नहीं देखे जानी चीजों और स्थानों की तुलना में देखी गयी चीजों की लिस्ट कुछ छोटी है।मगर जो भी देखा इत्मीनान से देखा।कहने को इस बीच और भी चीजें नहीं देखी हमने। यात्रा में घर जैसा खाना, चाय, बिस्तर, कूलर, टी वी , इंटरनेट नहीं देखा।इस यात्रा में हमने अपने बच्चों, बीवियों, पड़ोसियों, मित्रों, दूधवालों, अखबार वालों, सब्जीवालों किसी को नहीं देखा।मतलब कुछ देखने के लिए कुछ नहीं देखने की भी शर्तें हैं।
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