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Friday, March 29, 2013

29-03-2013

येनकेन आमंत्रण पत्र छप गए।पिछ्ला आमंत्रण देखते ही प्रायोजक खुद चलकर सहयोग देते बने। हमने इस बार एक आयोजन स्थल और दो प्रायोजकों को ना कहा। मतलब अपना काम बनता दिख रहा है।सही श्रोताओं का चयन और सूची को अंतिम रूप देना बाकी।घरवाली के सहयोग से लिफाफों में कार्ड डाले जा चुके हैं।मतलब गिरस्ती भी इस नेक काम में साथ है। बस पते लिखने बाकी।आयोजन स्थल की देखरेख पानी,बिछात,माईक सब व्यवस्थित और नक्की हो चुका है।।बिना लागलपेट।सारा काम शंका रहित।कवितायेँ पढ़ी जा रही है।समीक्षाएं लिखी जा रही है।मीनू बनाए जा रहे है।मोहल्ले में चर्चाएँ शुरू।खबर चार कॉलम में छप गयी।कुल मिलाकर निष्कर्ष ये कि अपनी दूकान चल निकली।
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तनख्वाह का हिसाब।मानदेय की जोड़ ।बचत की टोटल।आयकर की चिंता।बीमा-बीमे का हिसाब-किताब।उपरी आय का तोड़-बट्टा।छुट्टियों में खुले ऑफिस।बेंक में लाईने।मार धामाधीम।मुश्किल से खुटी हाल की परीक्षाएं।डराते हुए परिणाम।चुन्नू-मुन्नू के नए सिरे से दाखिले की जोड़-बाकी।सालाना स्क्रीनिंग के बाद शुरू नया साल।शहर की कुम्हलाती हुयी नदी।पहाड़ पर दूर से देखने पर दिखते बचे हुए की मुद्रा में हँसते पलाश।एक पुराने आदमी ने कहा ये सारे लख्खण मार्च एंड के हैं।साल चाहे जो भी हों।
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सम्पादक हो तो स्वयं जी प्रकाश जैसा। वसुधा,एक मात्र पत्रिका जो मैंने बतौर सदस्यता हर तीन माह में समय पर प्राप्त किया है।'वसुधा' का हाल का अंक पढ़ने के दौरान जाना कि सामग्री चयन और उर्दू अल्फाज़ का नुक्ते आदि के साथ सधा हुआ उपयोग और इस तरह लगभग अशुद्धि रहित अंक निकालना बहुत समझभरा और श्रमसाध्य काम है।मुझ जैसे आकाशवाणी उदघोषक के लिए नुक्ते आदि से सजे शब्द पढ़ने से उच्चारण सुधारने या जानने में मदद मिलती है। गोया इसी साल मार्च में मुझे पता लगा सही शब्द 'ज़वाब' नहीं होकर 'जवाब' है।इस बार की सम्पादकीय में स्त्री विमर्श को नए सिरे से परिभाषित करते उनके नज़रिए को पढ़ा जाना चाहिए।सारी आदमीजात को लाइन हाजिर करती सम्पादकीय।खुद स्त्रियों को अपने गड्डों से बाहर निकालती सम्पादकीय।
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इस बार की 'वसुधा' में 'नीलाभ' को 'मंटो' पर पढ़ा तो मंटो पर ज्यादा झुकाव के साथ फ़िदा होने की स्थिति आ पहूंची।इसी अंक में पंडित नेहरू को मंटो का लिखा ख़त तो गज़ब है।मंटो को पढ़ने के लिए उर्दू का शब्दकोश साथ लेके बैठना होगा।
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ये चित्तौड़ है।मेरे घर वसुधा, कृति ओर, विपाशा, कला समय, रंग संवाद आती है।राजेन्द्र जी के घर मधुमती  और वीणा आती है। राजेश चौधरी जी के घर तद्भव, हंस, नया ज्ञानोदय, आलोचना, पहल आती है।इसी मंडली के कनक जी के घर बनास जन, वागर्थ आती है।सत्यनारायण व्यास जी के घर आलोचना, बहुवचन,  आती है।ये एक दूजे के घर घूमती हुयी पढ़ी जाती है। कभी कभार कथन, लमही, शीतल वाणी, समकालीन सरोकार हाथ लग जाती है।

एक मात्र राजेश चौधरी ऐसे व्यवस्थित इंसान है जिनके पास सारे बीते अंक सीरियल में जमे हुए मिलेंगे।उनके मेहमान कक्ष की शान।अंक आने के पहले से लेकर पढ़ने और दोस्तों के घर जाकर वापसी में अपने शो-केस में सीरियल नंबर पर रखे जाने तक पत्रिका की केयर करना राजेश जी से सीखना चाहिए।राजेश जी जैसे निहायती ईमानदार आदमीं में अवगुण ढूंढना राई का पहाड़ बनाना है।समय के पक्के पाबंद।बल्कि ध्यान नहीं रखो तो दूजों को एक बारगी तो डाट-डपट दे।किसी ख़ास बिंदु पर एक बारगी उखड़ने के बाद उन्हें वापसी में ठंडा करना राजेन्द्र जी से सीखना होगा।
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ठीक से याद पड़ता है जब मैं आकाशवाणी में आकस्मिक उदघोषक आया ही था तब यहाँ दिन में दो बार दस-दस मिनट के लिए हम मीरा भजन बजाया करते थे।शायद सौ के लगभग भजन थे।सभी चार-चार और पांच-पांच मिनट के टुकड़े। उस दौर के आकाशवाणी चित्तौड़ के सहायक निदेशक डॉ इन्द्रप्रकाश श्रीमाली ने अपने निर्देशन में ही जयपुर में रिकोर्ड करवाए थे। एक बड़ा काम हुआ था शायद जैसा वे बार-बार कहते रहे। मीरा के ससुराल वासी होकर भी हम विशेष तौर पर भजन सुनते हुए बस उसकी भक्ति भावना से ही अभिभूत थे। असल बुद्धि तब आयी जब कुछ विद्वानों को पढ़ा। हम उस प्रगतिशील गायिका को ठीक से जान सके तो अब मीरा को सुनने के मायने बदल गए हैं।समझ गए कि उसे केवल भक्त कवयित्री समझना बड़ी भूल होगी।रेडियो पर तो खैर वो चंग अब नहीं बजता मगर पूरे विश्व के कलाविदों ने मीरा को क्या भावपूर्ण तरीके से गाया है।गज़ब।आज की शाम उन्ही की शब्द रचनाएं सुनते हुए बीत रही है।
 
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