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Thursday, January 10, 2013

10-01-2013

संभावना हमारे शहर की संस्था है जिसने हमें बहुत हद तक साहित्य का क-ख-ग सिखाई है।आजकल इसका संयोजन कनक भैया देख रहे थे। एक दिन बोले यार एक संयोग बन रहा है।स्वयं प्रकाश जी का उदयपुर आना हो रहा है।हमें उनके आने के आसपास कोई आयोजन प्लान कर उन्हें सुनना चाहिए। ये दिसंबर,2012 की बात होगी।हम उन दिनों राजस्थान साहित्य अकादेमी के वेदव्यास जी से मिलकर चित्तौड़ में मुनि जिनविजय जी को लेकर किसी आयोजन की फिराक में थे।कभी मेरी परीक्षाएं ,कभी डॉ राजेन्द्र सिंघवी की पोस्टिंग तो कभी कनक भैया के कुछ काम आड़े आ जाते।आयोजन टलते रहे।खैर हमने स्वयं प्रकाश वाले कार्यक्रम को करने के पक्के मन के साथ बाकी काम एक तरफ डाल दिए।

हम तीनों में एका है।विचारधारा के तौर पर हम भले ही कितने ही विमर्श में उलझे रहे हों।मगर मन से एक ही हैं।हम तीन यानि कनक जी,राजेन्द्र जी और मैं। ये दौर हमारे तीनों के बार-बार मिलने का रहा है।बैनर जो शहर में हमने संजोये।अपनी माटी,संभावना और साहित्य परिषद्।हम इतने कट्टर नहीं है।लिबरल कह सकते हैं।वैसे भी विचारधारा के लबादे को ओढ़कर कर पूरा जीवन नहीं निकाला जा सकता है। संबोधन पत्रिका के हाल के काशीनाथ विशेषांक में काशीनाथ सिंह खुद कहते हैं वामपंथ और दक्षिणपंथ के शिविरों में अब उतनी दूरी नहीं रही। कट्टरपन में बहुत हद तक गलन हुयी हैं।

तो स्वयं प्रकाश जी से पूछ कर तारीख 31 जनवरी,2013 पक्की हो ही गयी।दिसम्बर में हुयी मेरे हिन्दी एम् ए  के एग्जाम से फ्री होते ही हम मंड गए अपने काम में।जिंक के घनश्याम जी राणावत से बात हुयी बोले ये आयोजन तो हम जिंक के कर्मचारी ही करेंगे।स्वयं प्रकाश जी हमारे साथी हैं। पहला फ़र्ज़ और अधिकार हमारा है।मुझे बड़ा अचरज हुआ।कहाँ हम आयोजन को लेकर मारे मारे फिरते हैं और कहाँ सहयोगी स्वयं आगे आ रहे हैं।जगह तय।भोजन,चाय,स्टे आदि की समस्याएँ एक साथ समाप्त।घनश्याम जी जिंदाबाद।इस काम में जी एन एस सिंह चौहान का भी हाथ रहा जो घनश्याम जी का ही कनिष्ठ साथी है।ये बड़े काम के लोग हैं।बड़ी बात ये है कि ये सबकुछ निस्वार्थ है भाई।निस्वार्थ।

लेटर भेजे गए।ब्लॉग बनाया।नए ई-मेल पते बनाए गए।फोन लगाने शुरू किये।वक्ता,प्रतिभागी की हामी आने लगी।एक दफा हमने कनक जी के घर एक मीटिंग भी बुलाई ताकि सभी दूजे साथियों से चर्चा करके काम शुरू करें।एक सफल चर्चा और सलाह-मशवरे के दौर के बाद हम लग पड़े।उत्साह बढ़ता जा रहा था।अब हमें  लगभग तीस हजार रुपयों  का जुगाड़ लगाना था।विज्ञापन प्रदाताओं को नज़रें संभालती रही।आज तक तो काम आगे नहीं बढ़ा।खैर हो जाएगा यही सोच हम अभी तक तो निश्चिंत ही हैं।कहीं से एक सलाह ये भी आयी कि हम साथी लोग ही एक-एक हजार रुपये का चन्दा जमा कर लें।

ये था फ्लेश बेक।

कल ही हम जिंक नगर गए।ये हमारा दूसरा ट्यूर था वहाँ का।पहली बार हम चुपके चुपके ही कनक भैया को हॉल दिखाने ले गए।दूसरी बाद एक मीटिंग कल शाम सात बजे वहाँ के साथियों के साथ हुयी।बड़े आत्मीय अंदाज़ में।हम दस मिनट लेट थे।जाते ही मिले क्लब के संजय शर्मा जी,फिर आये पी के चतुर्वेदी जी,फिर उनके क्लब सचिव आये।ठण्ड ज्यादा थी।मैं ही मोटरसाईकल पर कनक भैया को बिठा ले गया था।उस सर्दी को देखते हुए तो गुलबन्द,टोपे,दस्ताने सब बेकार साबित हो रहे थे।हम स्वयं प्रकाश जिंदाबाद के नारे लगाते मानों गरमी संजो रहे थे।एक बंद कमरे में हमने टेबल टॉक की।कांच के साफ़ गिलासों में पानी आया,चाय आयी,चाय में शक्कर की डलिया मिलाई गयी।चम्मच से चाय को हिलाते हुए हमने बातचीत की। अलग अंदाज़ का अनुभव।इतने में हमारी तरफ से घनश्याम जी की प्रतीक्षा भी ख़त्म हुयी। सारी बातें साफ़ हुयी।लगे हाथ स्वयंप्रकाश जी से फोन पर बात हुयी।उनके सभी साथी इस आयोजन के दिन ही शाम के समय उनसे अलग से छोटी मुलाक़ात चाहते थे।स्वयं प्रकाश जी  के ना-नुकुर पर साथियों ने पूरा अधिकार जमाकर उन्हें आंशिक तौर पर मना लिया। शाम का आयोजन जहाँ जहां स्वयंप्रकाश जी अपने किसे दौर की रूचि के चलते लिखे गीत/कवितायेँ सुनाये और गाये।

मुझे भी पहली बार पता लगा कि जनवादी कथाकार स्वयंप्रकाश जी गीत/कविता भी लिखते हैं।
 
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