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Tuesday, November 20, 2012

20-11-2012

साथ के मित्र नौकरियाँ और पद छलांग कर ओहदे पार रहे हैं। एक बारगी तो हम समाज सेवा के हित खरचे अपने समय को अंशत: कोसने लगे हैं। एक संतुष्टि है जो कहीं कोने में बैठकर आज हमारे साथ रोती है।कुछ शाबासियां है जो अब रंगहीन हो चुकी है। आज लगा कि बीते दस साल में छपी अखबारी रपटें चिढ़ा रही हैं। कुछ छायाचित्र आज उदास हैं जो हमने अनजाने मगर बड़े लोगों के साथ शौकियाना खिंचवाए थे। कुछ ऑटोग्राफ आज चिंतित हैं जो हमने यूंही दूरद्रष्टि के अभाव में ले लिए थे। दिशाएं मौन हैं जहां से हमेशा खुशखबरें आती थी। रिश्तेदार दिलासे देने के हित आ जमे  हैं देहरी पर।

इतना भी क्या रोना-धोना।बीच की एक सीढ़ी  ही तो नहीं लांग पाए हैं हम।वैसे भी पैसा उगाती इन नौकरियों के पार का जीवन तक थाह लिया हैं हमने। इत्मीनान से ज़ेबें भरी है हमारी। एक तसल्ली है हमारे मन में दूजों के हित खप जाने की। आसपास को समझते हुए भोगा है हमने। पास में एक विचार है आज अकूत धन की तरह।एक समझ हैं जिसमें बड़ी नौकरी से ज्यादा वज़न हैं। बार बार कन्फ्यूज करते ये पैसों के मेले नहीं देखना चाहती हैं अब हमारी आँखें। तंग आ चुके हैं हम कुछ वाक्यांशों से। गोया 'पैसा ही सबकुछ है।'
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कुछ न कर सकें तो बीवी के जन्मदिन पर ऑफिस से छूट्टी तो ले ही सकते हैं। अभिन्न मित्रों को फूलों के गुच्छे भेंट करने वाली औलादें क्या एक गुलाब भी नहीं खरीदेगी आज। रोज चाय के कपल्ये सुड़कने वाली ज़बान हेप्पी बर्थ डे तो उगलेगी या आज भी मौन धर लेगी । एक दिन के लिए ही 'बीवी' बनकर देख लों,उनकी सेवा में आठवीं का दूध याद जाएगा। कपड़े कूटने में कमर दर्द का ईनाम। झाडू-पोछे में घुटना दर्द की आमद । अर्धांगिनी जैसी संज्ञा के नाम साल में चार सी एल पक्की कर आप सारे आरोपों से बरी हो सकते हैं।खासकर उसके लिए जो आपके चक्कर में कभी सी एल नहीं लेती। चार रोज़ मतलब दशामाता,करवा चौथ,मौहतरमा का जन्मदिन,शादी की सालगिरह। नुस्का आजमाया हुआ नहीं मगर सुविचारित है।अभी नहीं समझे तो आपको आपकी बीवी के अलावा कोई नहीं समझा सकता। (कुछ शरारतवश लिख दिया)
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जब मैं बिना भाव ताव खरीददारी करता हूँ तो मुझे मेरे पिताजी नहीं टोकते।कम्प्यूटर में बहुत देर तक टकाटक करता हूँ तो माँ  बीच बीच में टोंक कर कोई काम नहीं बताती। जब भी हॉस्पिटल जाता हूँ पिताजी के कमर दर्द और माँ  के पाँव दर्द की दवाई मुझे नहीं लानी पड़ती। हर साल नया चस्मा बदलते वक़्त मुझे पिताजी के चश्में का पुराना नंबर ही आज भी वाजिब और उपयोग के हित मुनासिब ही लगता है। फोन का बेलेंस मेरा और बीवी का ही ख़त्म होता है।यहाँ माँ -पिताजी  के लिए एस एम् एस कार्ड रिचार्ज के झंझट से मुक्ति है।खाना बनाते वक़्त हम माँ -पिताजी से उनकी पसंद नहीं पूछते या रायशुमारी नहीं करते हैं।क्यों कि  हम शहर में एकल परिवार का आनंद भोग रहे हैं और वे दोनों अपना बुढ़ापा गाँव में।
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वरिष्ठ साथी अशोक जमनानी से बात हुयी बातों में पता चला कि वे दिवाली के तीजे दिन उज्जैन गए हुए थे।लगे हाथ दिली इच्छावश वे जानेमाने कवि चंद्रकांत देवताले जी से मिलाने उनके घर भी गए। अशोक भाई ने उन्हें अपनी दो किताबें 'छपाक-छपाक' और 'बूढी डायरी' भेंट की। वहीं उन्होंने अपने मित्र तुलसीराम जी की आत्मकथा 'मूर्दहिया' पढ़ने को दी। उन्होंने चाय-नास्ते के साथ अपनी चंद कवितायेँ भी सुनायी।आपसी परिचय को आगे बढाते वक़्त बहुत सी बातें हुयी। एक बात जो उन्होंने देवाताले जी के शब्दों में कही कि 

''मेरा जन्म उन्नीस सौ छत्तीस में हुआ था।अच्छा हुआ मैं उन्नीस सौ नब्बे में पैदा नहीं हुआ क्योंकि जितना जल्दी जन्म लिया उतना जल्दी मर जाउंगा। यहाँ अब जिस तरह से साल दर साल बदसूरत ज़माना आ रहा है मैं उतनी ही बदसूरती देखने से बच जाउंगा।''
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हिन्दी में एम् ए  (पूर्वार्ध ) के पत्राचार बाबत उपसत्रीय कार्य कर रहा हूँ। बाकी खैरियत है।आजकल टी वी नहीं देखता। आज़कल आलसी बाप की तरह बेटी को होमवर्क नहीं कराता।काम बंटा  हुआ है।नौकरी मेरा काम घर की सार-संभाल नंदिनी का। अनुष्का का रिटर्न होमवर्क वैसे मेरा जिम्मा  है और ओरल मेमसाहेब का ।थोड़ा सा बंटवारा अच्छा लगता है।
 
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