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Monday, November 19, 2012

19-11-2012

कल शाम एक विवादास्पद विचारधारा के जनक का अंतिम संस्कार हो गया।एक इंसान के तौर पर उन्हें हार्दिक श्रृद्धांजली है।आज फिर एक बड़े नाम का जन्म दिन है।इस देश में बड़े बड़े नाम पर कितनी चर्चाएँ और आयोजन करता है हमारा समाज।यहाँ 'आम' के लिए कोई हो-हल्ला नहीं होता।आम इंसान चुपचाप छाती पिटता रहता है और एक दिन चुपचाप मर जाता है।धारा के साथ बहने वाले और धारा के दूरगामी प्रभाव से अनजान लोग यहाँ बहुसंख्य हैं। अल्पसंख्य लोग (विचारक/चिन्तक/लेखक )यहाँ घरों में बैठे हुए बोलते हैं।उनके पास फोरी तौर पर चर्चा के सिवाय कोई बड़ा कदम नहीं। सारे अखबार एक सी छपाई के लगने लगे हैं और सारे आलोचक सभी को तुष्ट करने के चक्कर में। दिल बहलाने के लिए लोग मसले बदल लेते हैं।गुंजाईश देखते ही विचारधारा के लेवल पर भी  पलटी मारते देर नहीं करते।कुछ साथी तो उम्र के अधियाने पर अब भी विचारधारा के नाम पर मेरी तरह कन्फ्यूज ही हैं।वे जातिवादी संघ और प्रगतिशील साथियों के संघ के एक साथ अध्यक्ष हैं।
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चित्तौड़ में मीरा स्मृति संस्थान के सचिव सत्यनारायण समदानी भी फेसबुक पर आ गए हैं। दिवाली के दिन में निकलने वाले अखबारी पृष्ठों के लिए मैंने अपनी तीन कवितायेँ लोकल चीफ ब्यूरो को भेजी थी।दिवाली हो गयी।अखबार निकल गए।सम्पादन लगातार जारी है।कवितायेँ बेचारी कहीं अटक गयी।सच में ये पत्र-पत्रिकाएं किसी को कितना प्रोत्साहित कर सकते हैं, इस बात का एक बार अनुभव हो गया।अनुभूति ये भी हुयी कि  कितनी लचर कवितायेँ लिख सकता हूँ मैं। एक निर्णय कर लिया बस ;जब तक कोई रचनाएं मंगवाए नहीं कहीं नहीं भेजेंगे। ससुराल में ऐंठ लगाते जवाईं की तरह बिना मनुहार न खायेंगे न पियेंगे।न्यू मीडिया का शुक्रिया जो बस लिखो और छापो के सहारे हम ज़िंदा है।जिसे भाये पढ़े,नहीं तो लेखक और पाठक दोनों का सफ़र बदस्तूर जारी रहे। 
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इसी सात दिसंबर को हमारे गुरु सत्यनारायण व्यास पुणे में किसी कुमुद मुनि जी के आश्रम में जैन साहित्य पर बोलने सपत्निक जा रहे हैं। कड़वी जबान के व्यास जी को वहाँ बोलने से पहले तैयारी हेतु उन्हीं मुनि जी की लिखी पंद्रह किताबें पढने को भेजी गयी है।व्यास जी उन्हें मेंढ़क छलांग लगाते हुए सूंघ-सूंघ कर पढ़ रहे हैं।आंशिक बातचीत में वे कहते हैं जैन समाज ने जिस तरह से जैन धर्म और महावीर को मंदिरों तक कैद किया है गज़ब है।ये धर्म इतना बहोपयोगी होकर भी केवल जैनियों तक सिमित हो गया है।धर्म में हर तबके के इंसान को अच्छे बरताव के साथ देखने की शिक्षा के चलते भी आज देशभर में सभी महाजनों को एक ख़ास नज़र से देखा जाता है जहां वे लूटने के लिए जिम्मेवार दर्शाए जाते हैं।जैन मंदिरों में जैनियों के अलावा किसी की रूचि नहीं है इसका जिम्मेदार कौन हैं?
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कविता लिखना इतना आसान नहीं।कुछ दिन से कवितायेँ नहीं बन पा रही तो नहीं बन पा रही है। लग गया है कि वे किसी की दबेदारी में पैदा नहीं होती।चाहे जितना एकांत भोग लें रचनाएं अपने नौ महीने पूरे करके ही बाहर आती हैं।सभी का अपना गर्भकाल हैं।सभी की अपनी जन्मदात्री।जोर-ज़बरदस्ती के यहाँ कुछ भी मायने नहीं हैं।सरकारी बस की तरह चलती गाड़ी  में टिकट फाड़ने की तरह कविता लिखना नहीं हो सकता है।गुरु कहते हैं पहले कुछ कविताओं के विचार बिन्दुओं को मन में कहीं टांग दो।फिर उन पर विचार बुनते रहो।शब्दों को पकने दो।असली मूड की बाट जोहो।बस तय वक़्त पर नदी से निकलते किसी साफ़ पानी वाले  नाले की तरह कविता को जन्म दे दो। यही निकास है कविताओं का।



 
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