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Saturday, May 12, 2012

12-05-2012


(1) कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी अपनी सेवानिवृति के बाद भी अपने बरताव,भाषा,बोलने के अंदाज़ में वही टेंट कायम रखता है तो ये उसकी गलतफहमी है कि लोग उसे उसी दबाव (तथाकथित मनोयोग) के साथ सुनेंगे जैसे कभी अधिनस्त सुनते रहे.गुस्सा तो तब आता है जब उसे अब भी इतनी फुरसत नहीं सूझती कि सामने वाले पक्ष को भी सुन सके.ऐसा कई बार हुआ...............एक बार और फिर सही.........ऐसा तब तक बदस्तूर जारी रहेगा जब तक ऐसी प्रजाति ज़िंदा रहे.........

(2) वहीं दूजी तरफ आज 'सूचना के अधिकार' जैसे नीरस विषय पर आज मैंने : श्रोताओं के बीच खुद को उसका हिस्सा बनाते हुए एक गोष्टी में हमारे शहर में ही सुनील कुमार झा साहेब को सुना.शायद नगर की 'परोपकार' नामक संस्था का ये पहला आयोजन ही था.संस्था के कर्ताधर्ता कई और संस्थाओं के सदस्य जे.पी.भटनागर और वी.बी.चतुर्वेदी हैं.माला, नारियल,शाल,संचालन, जैसी औपचारिकताओं से परे ये आयोजन कई मायनों में अच्छा था..हालांकि झा साहेब का अंदाज़ किताबुमा पठन सा था.मेरी नज़र में गोष्टी का मंतव्य कागजी ज्ञान के बजाय ज्ञान के साथ उस आदमी या वक्ता विशेष के विचार का शामिल हो गुंथा हुआ हो तभी माहौल सरस बन पड़ता है।

(3)आज ही मघेपुरा,बिहार के साथी डॉ.अरविन्द श्रीवास्तव का कविता संग्रह 'राजधानी में एक उज़बेक लड़की' मिला।बीच की कुछ कवितायेँ छोड़ सभी एक धारा की और अच्छी कवितायेँ निकली।पहने के लिए एक बार किताब पढूंगा।समीक्षा लिखने के लिए फिर पढूंगा।दोस्तों तक भी तो देनी है ये किताब।आदत जो है बांटने की।मांग कर लाने,पढने की।
 
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