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Monday, April 16, 2012

16-04-2012

चित्तौड़ के कुम्भानगर में रहता हूँ.दिसंबर उन्नीस सौ सत्तानवें से लेकर दो साल बीच के निकाल दो तो बाकी दिन मैं रेलवे पटरियों के इस पार ही रहा.अब तक कई मकान बदले.सबसे शुरुआती समय में कुम्भानगर मस्जिद के पास दूसरी मंझिल पर एक चपरासी के मकान में रहना शुरू किया.बाद में तेजाजी चौक में जैन के मकान में सालों जमे रहे.कभी हरिजन बस्ती में एक कोलेज लेब सहायक शर्मा जी के मकान में तो कभी दोस्तों के घर आंशिक रूप से बिगड़े हालात में.इसी बीच रोजगार कार्यलय के पास छाजेड़ जी के मकान में रहकर भी बेरोजगारी का जीवन गुजारा. ज़िंदा रहे,बचे रहे,सफ़र चलता रहा.बस संगी साथी बदलते रहे.बाद का कुछ हिस्सा छोड़ दे तो हमेशा किसी न किसी के साथ ही रहा.

कभी रणछोड़ भवन में.कभी पटवारी जी के यहाँ.कभी हरियाणवीं यादव के यहाँ.फिर शादी के वक्त पटरियों के उस पार पन्नाधाय कोलोनी में व्यास जी के यहाँ.फिर सपत्निक सफ़र में प्रताप नगर में बल्दवा जी के संकडे मगर आत्मीयता भरे मकान में.अनुष्का हुई तो शिवलोक कोलोनी के नाहर साहेब का घर नसीब हुआ.सभी जगह साल-दो साल तो गुजारे ही.किसी ने निकाला नहीं सभी जगह हम सकुशल इज्जत के साथ निकलें.इसी बीच दो जगह ऐसी भी निकली जहां एक दारुबाज के मकान में एक रात के बाद ही हमने दूजे दिन मकान खाली किया.एक जगह मकान की साफ़-सफाई कर दी.हाई की हामी के पैसे भी दे मारे.मगर रहने का मुड चेंज होने से शिफ्ट नहीं कर पाए.जीवन के अनुभव में मकान मालिकों के चरित्र और व्यवहार ने भी बहुत कुछ सिखलाया.

रेलवे फाटक के पल्ली तरफ हमारा मुख्य/पुराना चित्तौड़ या कह लें सिटी बसा है.आज एक तस्वीरसाज के यहाँ पत्नी के आग्रह पर एक सांवलियाजी करके भगवान की तस्वीर बनवाई.बातों में पता चला कि मनोहर लाल जी करके वो अधेड़ आदमी पच्चीस साल से तस्वीरें बनाता है.कहने लगा आजकल भगवान् की मांग कम हो गयी है.लोग सिन-सिनेरी ज्यादा माँगते हैं.बाप दादा की तस्वीरें अक्सर तीसरे,बारवें या बरसी पर बनवाते हैं.लक्ष्मी जी हर वेरायटी में उपलब्ध है.जो ऑफ़ सीजन में सस्ती पड़ती है.चाहो तो भी लेकर रख लो.दीपावली पर महंगी पड़ेगी.बातें तब ख़त्म हुई जब हमारे सांवलियाजी की तस्वीर बन कर तैयार हुई और हमने खाली उसकी मड़ाई के चालीस रुपये दिए.

गोलप्याऊ से सटी इस तस्वीरसाज के ठीक सामने एक जलेबी वाले छिपा जोशी का थैला लगता है.बातों के साथ ही जलेबी में स्वाद भरने में उस्ताद.अक्सर सर्दी के शामों में हम चार यार यहीं मिल कर जलेबी खाते थे.तीन रुपये की सौ ग्राम के भाव से अब तक जब भाव आठ रुपये सौ ग्राम हो चुके हैं.जितना दिल करता खाते बाकी देर से हमें ताकते/इंतजारते आसपास खड़े कुत्ते को दे आते.यहीं एक केसर कुल्फी का थैला लगता है.पहले पांच की एक देता था अब दस की कर दी है.बाकी छुटकर फूल-माला के अलावा सब्जी-भाजी और फलों के थैले कोई नई बात नहीं.हर शहर में एक सी फिज़ा बनाते मिल जाते होंगे.सब्जी मंडी के ठीक सामने  दो तीन सालों से सांई बाबा का मंदिर बन गया है.जिसे शिवजी के मंदिर वाले आहाते में ही एडजस्ट किया है.ठीक कोने में.उसके बाहर सीढियों पर हमेशा मिल जाती है,मटके वाली कुम्हारिने.मेरा ध्यान खींचती है उनकी मेहनत.जो गुल्लक,कड़ेली,दीपक,धुपाने सहित बिजोरे,मतलब सब तरह का माल रखती है.पास ही पूर्णिमा चाट वाला थैला लगाता है.सब चीज बनाता है मगर लोग उसे पूर्णिमा समोसे वाले के नाम से पहचानते हैं.आजकल पांच का समोसा सात का हो गया है.
 
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