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Thursday, January 30, 2014

30-01-2014

चित्रांकन-अमित कल्ला,जयपुर 
हमारी सुबह कभी बिस्मिल्लाह खान साहेब तो कभी पंडित शिव कुमार शर्मा के सुरमई योगदान को सुनते हुए होती है और आपकी ? वैसे ये अलग बात है कभी-कभी उन सुरों में हमारी श्रीमती जी के बोले तीव्र सप्तक वाले सुर भी शामिल होकर हाहाकार मचा देते हैं.असल में हम कोई राजा महाराजा तो हैं नहीं वैसे भी अब लोकतंत्र में राजातंत्र रहा कहाँ? जो सवेरे की मंगलकारी धूने बजाकर कलाकार हमें शहनाई और नंगाड़े से मिलवाए.हम ठहरे आम आदमी, हमारी औकात वहीं तक जाकर रुक जाती है जहां हमारे एक इशारे पर इंटरनेट के अनलिमिटेड प्लान की बदौलत एक से एक बड़े कलाकारों की रिर्कोर्डिंग एक बटन की दूरी पर से हमारे सत्कार में बज उठती है बस.गफलत इतनी है कि हम समझ नहीं पाते हैं कि यह टेक्नोलॉजी की जयजयकार है या हमारी आम आदमीयत की ताकत. कुलमिलाकर सुबह सुरमई है.

ये सुर महज किसी रूचि को नहीं पूरते बल्की हमें स्मृतियों में ले जाने को भी मुस्तैद सुनाई पड़ते हैं.गिरिजा देवी जी की ठुमरी सुनता हूँ तो मुझे उनका दादी अम्मा वाला चेहरा याद हो आता है,माजरी आँखों के साथ उनके होठों पर बनारसी पान की ललाई क्या फबती है? और जब वे गायन के आगाज़ में पहला सुर परोसती है तभी से श्रोताओं को अपने आसन पर जमाना शुरू कर देतीं हैं.उन्हें सुनना स्वरों की मिठास से परिचित होना है.उन्ही शब्दों को दुसरे भेष में सुना जा सकता है जिन्हें हम बड़ी निर्दयता  के साथ कर्कश बनाते रहे.हमारे जीवन में यही कुछ वैविध्यभरी संगतें हैं जो हमें ठहर कर सोचते हुए आगे बढ़ना सीखाती हैं.जब हम हरिजी को सुनने बैठते हैं जो वो संगत बांसुरी वादन की एक बड़ी और यादगार प्रस्तुति से भी बहुत आगे का मसला होता है.हमें यह समझना चाहिए कि कलामंडलम गोपी जी का कथकली प्रदर्शन खाली एक नृत्य प्रस्तुति कैसे हो सकता है? प्रदर्शन के पीछे के आदमी का ताप महसूस करना किसी दर्शक या श्रोता का असली मकसद हो सके तो उससे बड़ी बारीक समझ हो नहीं सकती है.

इंटरनेट का ये आभासी माध्यम भी हमें जाने कहाँ तक सोचने को प्रेरित कर जाता है गोया जब मैं अब्दुल राशिद खान साहेब को सुनता हूँ तो कलकत्ता चला जाता हूँ , उस्ताद असद अली खान साहेब की रूद्र वीणा सुनते ही बाड़मेर-जैसलमेर की तरफ. बिरजू महाराज के नाम पर कई शहर याद आ पड़ते हैं जम्म, कोहिमा, सुरतकल, बनारस. डॉ एन राजम का ज़िक्र होते ही गाजियाबाद की वो रात्रिकालीन संगत याद आ पड़ती है. पंडित भाई राजन-साजन जी मिश्र के युगल स्वरों ने मुझे कई बार मणिपाल की याद दिलाई है.असल में इन बड़े नामों के साथ तनिक देर की संगत में उनकी सेवा में किए चंद काम भी इतने सालों तक याद रहेंगे सोचा न था.गंभीर किस्म की इन संगतों का ये सिलसिला कहाँ थमने वाला है ? पता नहीं.इस सूची में सोनल मानसिंह जी से लेकर केलूचरण महापात्र, गुलज़ार, शबाना आजमी, फारूख शैख़ से लेकर कुड़ीयट्टम की कपिला वेणु भी शामिल समझी जानी चाहिए.
 
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