स्वामी विवेकानंद ने पक्के नास्तिक होते हुए भी ध्रुपद और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन सीखा।रियाज किया गाया।यहाँ तक कि उनके गायन से ही ज्यादा प्रभावित हो स्वामी और ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने उनसे लम्बी चर्चाएँ की।शिष्य बनाया।आगे बढ़ाया।अपना उत्तदायित्व सौंपा।चर्चाओं के बीच वे विविकानंद से गायन सुना करते थे।उन्हें बंगाली रचनाएं बेहद पसंद थी।ये विचार और स्वामी विवेकानंद की पसंद के गीत सुनने का मौक़ा पंडित अजय चक्रवर्ती जी से मिला।
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'ससुराल से बड़ा
कोई स्वर्ग
नहीं है
और अगर
ससुराल भोपाल
में हो
तो क्या
कहने' एक से बढ़कर एक ठाठ।सास-ससुर,साले और साले की बीवी सब सेवा में हाजिर।रोज नए किस्म की डिश।कुछ मित्र कह रहे थे कुछ साल पहले तक आपने बताया आपका ससुराल इंदौर है।उससे पहले एक सज्जन ने कहा आप बता रहे थे कि आपकी बीवी जावद(मध्य प्रदेश) की है।आपने शुरू में कहा था कि आपने शादी अपने ही गाँव अरनोदा में की थी जहां आपके काक्या ससुर रहा करते थे।
आखिर कल एक मित्र ने पूछा क्या, ''आपने दूसरी शादी या फ़िर………………।''
भाई मैंने शादी एक ही बार की है अब मेरा साला अपने जॉब के चक्कर में शहर बदले तो इसमें मेरा क्या कसूर।इस प्रयोग और वाकिये से निष्कर्षत: हम सभी कह सकेंगे कि शहर बदल जाने से भी ससुराल वही रहता है।साला वही रहता है।पत्नी वही रहती है।सास-ससुर वो-के-वो।खातिरदारी का अंदाज तक नहीं बदलता।(नोट:-आपके लख्खण के हिसाब से खातिरदारी का अंदाज परिवर्तित हो सकेगा।शर्ते लागू।)
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एक ख्वाहिश पूरी
होने की
तरह फिर
अपने चित्तौड़
में आ
गया हूँ।इतर
मित्रों के
साथ कलकत्ता
यात्रा के
बाद अपने
अभिन्न मित्र
(बेटर हाफ
नंदिनी )के
साथ की
यात्रा में
अनुभव किये
अंतर के
साथ जाने
कितने रेलवे
स्टेशनों से
गुज़री रेल
गाड़ी आखिर
आज सुबह
ढ़ाई बजे
चित्तौड़ टेशन
पर आई।अनुभव
बड़े गज़ब
है।रेलवे स्टेशन
से होटल
तक जाने
के एक
सवारी दस
रुपये मगर
वापसी में
होटल से
टेशन तक
जाने के
पचास रुपये
प्रति जवान।
मथुरा
तो बाप
रे बाप।इतने
सारे मंदिर
और आश्रम
कि घर
जैसी चीज
तो दिखना
नामुमकिन है।सभी
'दुकाने' हैं।सारे
मंदिरों के
खुलने बंद
होने की
समय सारणी
बनाके चलो
तो भी
दर्शन हो
जाए संभावना कम है।दर्शन
हो जाये
तो पंडों
के गोचो
से बच
जाओ असंभव
है।यू पी और बिजली में छत्तीस
का आंकड़ा।पीने
का पानी
मतलब बिसलरी
ही होता
है।यमुना की
हालत सभी
जगह एक
सी ही
थी।चाहे आगरा
जाओ या
मथुरा,वृन्दावन।कुछ
देर हम
भी यमुना
का दुःख
पूछ आये।
लूट-पाट के
मामले में
बंदरों तक
की सेटिंग।बन्दर
आयेगा आपका
पर्स या
चस्मा झपट
ले जाएगा।फिर
आपके परेशान
चहरे के
सामने एक
बच्चा आयेगा,कहेगा पर्स
या चस्मा
वापस लाने
का मैं
ही रामबाण
इलाज हूँ इधर उधर देखने से कोई फायदा नहीं है।ले-दे-के
पचास के
नोट पर
एक दस
की फ्रूटी
देकर बच्चा
बन्दर से
बदले में
पर्स ला
आपको सोंपेंगा।इस माजरे में सबके
मजे हैं।चालीस
की गोचरी
में खुश उस बच्चे की कहे या।दस की
फ्रूटी पीने
में मस्त बन्दर की सोचे।आठ की
फ्रूटी दस
में बेचने
में प्रसन्नमुखा दुकानदार या फिर पचास के
बदले सात
सौ का
चस्मा हथियाने से खिले चहरे वाले आप खुद।बोलो राधे-राधे।
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धूपिली राहों क
बीच वैष्णो
देवी ट्यूर
पूरा हुआ।जीवन
में एक
बार ही
करने योग्य
मथुरा,वृन्दावन
भी निपट
गया।एक शाम
भारत भवन
में पंडित
अजय चक्रवर्ती
जी का गायन
सुनने में
बीती। हालांकि कुछ दिन पहले ही कलकत्ता अधिवेशन में पंडित जी को सुन चुका था। मगर मन नहीं भरा।असल में मुझे पंडित को देखने में नहीं सुनने में रूचि है।देखना होता तो दुबारा भारत भवन नहीं जाता।फोन पर पता लगा उस आयोजन में संचालन
वरिष्ठ साथी
और समीक्षक
विनय उपाध्याय करने वाले हैं।लगे हाथ उनसे मिलने का उमाव मेरे मन हमेशा रहता ही है।हालांकि कार्यक्रम में अंतिम रचना के शुरू होने से ठीक पहले ही निकलने के
कारण उनसे (विनय भैया और प्रेमशंकर जी )मिल नहीं
सका।बाकी बड़े लोगों से मिलने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रही।मैं उसी से मिलता हूँ या नमस्ते ठोकता हूँ जो कम से कम मुझे जानता तो हो।या जानेगा इस बात की कुछ संभावना हो।गोया नेता नगरी के आने पर कुर्सी छोड़ ताड़ासन करना या दंडवत करना मेरी फितरत में नहीं।माफ़ करना।
इस यात्रा में एक अफसोस ज़रूर रहा।कथाकार
स्वयं प्रकाश
जी के
शहर भोपाल
में उनसे
मिले बगैर मैं गोञ्चॊ चित्तौड़ निकल आया।हालांकि वे मुझे पह्चानेट ज़रूरी नहीं मगर मुझे उनका लेखन बेहद पसंद है ये शर्त ही काफी है उनसे मिलें के लिए।पूरी
यात्रा में
भोपाल रास आने वाले शहरों में नंबर वन पर रहा।दिल था
कि वहाँ हो
रहे नाट्यरूप
महोत्सव के
नाटक देखता।मानव
संग्रहालय में आदिवासियों पर केन्द्रित
फिल्म महोत्सव
देखता।एक अनिच्छा के साथ एक रवानगी।एक
अफसोस साथी
अशोक जमनानी के घर
होशंगाबाद नहीं जाने का भी
शामिल समझिएगा।मन
है कि भोपाल प्रवास के दौरान कभी स्वयं
प्रकाश जी,राजेश जोशी
जी राजेन्द्र
शर्मा जी,विनय भैया
से बातों
में वक़्त गुज़रे।
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घर से बाहर और फिर शहर से दूर की यात्राओं के बीच अपना शहर बड़ा याद आता है।एक अतीत की तरह यात्राओं के दृश्यों के बीच भी नॉस्टेलजिक होने की मंशा रहती है।पूरी होती यात्रा में अधूरे पड़े काम याद आते हैं।एक सीन को कैमरे में कैद करते वक़्त बीते समय के सीन याद आ पड़ते हैं।रुका हुआ परीक्षा परिणाम, आने वाली परीक्षा की तारीखे, अखबार, दूधवाले का माहवारी हिसाब याद आता है।बिजली का मासिक बिल और नल के मीटर के यूनिट नज़र आने लगते हैं।ट्रेन की गर्मी के रेले के बीच घर की ठंडक याद आती है।बिसलरी पानी घुटकते वक़्त घर की छुकली का शीतक जल गले में बैठ जाता है।होटलों के सुगले लेट-बाथ के बरक्स अपना आँगन याद आता है।एक मध्यमवर्गीय नौकरीशुदा आदमी को इससे ज्यादा क्या याद आयेगा।अन्तोगत्वा सारांशत: यात्राएं जीवन में ज़रूरी पड़ाव की तरह शामिल की जानी चाहिए।