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Sunday, April 7, 2013

07-04-2013

एक संडे सार्थक हुआ।पहले से तय वक़्त पर एक आदमी का घर की चौखट पर ठीक नौ बजे आ जाना उन्हें राजेश चौधरी बनाता है।समय की पालना सीखने के लिए किसी डंडे के बजाय हमें राजेश चौधरी जैसे दोस्त की ज़रूरत है। स्त्री विमर्श की डींगे हांकने के बजाय उसे प्रेक्टीकलीकरण करने का तजुर्बा राजेश चौधरी जी से बेहतर कौन समझा सकता है।एक आदमी जो सालों तक की कोलेज की नौकरी में एक या हद से हद दो बार किसी कारणवश देर से कोलेज पहुँचा हो और उस दिन की उसकी पहली तीन कक्षाएं खाली इस अपराधबोध से खराब हो जाए कि वो स्वयं बिना वजह लेट हुआ तो उसे आप राजेश चौधरी कहिएगा।ऐसे महानुभवों को देख लगता है आज भी इंसानियत और ईमानदारी ज़िंदा है और भी जैसे कि हमारे सुधरने की गुंजाईश अभी बाकी है।

किसी एक तयशुदा काम की टेंशन भी महीनेभर पहले से दिमाग में लेकर चलने वाले शख्स का नाम राजेश चौधरी ही हो सकता है।काम के एक एक पक्ष को ढ़ंग  से करने के चक्कर में उनके साथ वाले भी करीने से काम करना नहीं सीख जाए तो इससे राजेश जी सारी कोशिशें बेकार और खारिज समझी जाए।चलते हुए एक काम के बीच अचानक ग़र चार दिन पहले हुए वाकिये की चर्चा छेड़ दी जाए तो उसके लिए राजेश चौधरी जिम्मेदार हैं।एक और मजेदार बात, सबको मालुम हैं एक मई दूर हैं मगर उसकी तैयारी में वे अभी से परेशान हैं।असल में उनके चेहरे पर थोड़ी सी  टेंशन के बिना निखार भी नहीं आ पाता है।चीजों को अपने तरीके से शक्ल देने के वे आदी नहीं हैं मगर आपसी बात-विचार के बीच वे बड़ी साफगोई से अपना विचार रखते हैं यही उनकी लम्बी तालीम का नतीजा है।

ग़र संडे मोर्निंग नौ बजे कोई गुजराती डिश 'हांडवा' बनाकर टिफिन में सेट कर आपके घर आ जाए तो बेधड़क उन्हें राजेश चौधरी समझ सकते हैं।लगता है मन में ठान लें तो अल सुबह उठ तमाम निजी काम निबटाने के बाद भी सवेरे की सेर कर कोई खुद को तंदुरुस्त रख सकता है।ऐसे में एक आलसी तब तक भी दांत न माज पाएं वो माणिक ही हो सकता है।विदाउट शुगर चाय बनने और सुड़कने से पहले कुछ मतलबी बातें हुई।इधर उधर के हालचाल।दिल्ली से लेकर ब्यावर,त्रिवेंद्रम,बनारस होते हुए हमने सैंथी तक की खबरों को चर्चा में लसन के मसाले की तरह कूट लिया।

आधे घंटे की औपचारिकता के बाद शुरू हुए शुद्ध साहित्यिक विमर्श में वही राजेश चौधरी अपने सम्पूर्ण ज्ञान के साथ सामने आए।उन्होंने 'आलोचना' के बीते अंकों से अष्टभुजा शुक्ल की कवितायेँ और पद-कुपद सुनाएं।पत्नी नंदिनी ने भी पूरी हिस्सेदारी निभाई।मैंने इन दिनों के पठन-पाठन से बात शुरू कर सवाई माधोपुर के कवि विनोद पदरज के पहले कविता संग्रह 'कोई  तो रंग है' से मेरी पसंद की कवितायेँ सुनाई।ये मजमा घंटे भर तो चला ही होगा।कविता पर कविता और कविता के शिल्प और कथ्य पर दे लम्बी लम्बी बातें।मानों किसी राष्ट्रीय सेमीनार का प्रमुख हिस्सा उफान पर हो।इस डेढ़ घंटे में संडे को सार्थकता की सांस लेते देखा।वरना सच तो यही है कि अभी तक तो मैं बिस्तरे पर ही पोड़ा हुआ टेम खुटाता मिल जाता।

मेरे और राजेश जी में बहुत फर्क है सबसे बड़ा फर्क उम्र का तो है ही।एक फर्क जो आज पता लगा कि वे सुबह चार बजे उठते हैं और मैं साढ़े छ: बजे।उन्हें शक्कर की बीमारी है मुझे आलस की।उन्हें टेंशन की आदत है मुझे संस्थाएं चलाने की।वे एक आयोजनों को लेकर बहुत वक़्त तक चिंतन कर सकते हैं इधर मैं उनके साथ निबटने वाले आयोजन से पहले दस आयोजन पूरे कर लेने की हिम्मत रखता हूँ।वे हिन्दी के जानकार प्राध्यापक हैं और मैं हिन्दी का ककहरा सीख रहा हूँ।कुलमिलाकर मैं उनके काम का हूँ और वे मेरे लिए फायदेमंद हैं।एक अन्दर की बात कहूं नंदिनी के अनुसार उनकी शक्ल मेरे ससुर जी से मिलती है और मेरे अनुसार उनकी शक्ल मुझसे मिलती है।लम्बी पटेगी।खूब छनेगी।आर-पार संवाद होगा।
 
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