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Sunday, March 31, 2013

31-03-2013

''एक आदमीजात का रविवार गैरमर्दाना काम करते हुए गुज़र जाए।शर्म है।'' ये मैं नहीं हमारा परम्परावादी समाज कहता है।

आदमी इस रविवार वो सब करता है जिसका अभ्यस्त हमने किसी और  बना दिया है।सेवेरे की चाय से लेकर बाज़ार से लाये नास्ते से सजी टी-टेबल पर आईटम जमाने तक। एक भी ज़रूरत की चीज बाकी नहीं गोया चम्मच, प्लेट, गिलास, चाक़ू, टेबलेट, केप्सूल, सिरप।सारे तामजाम एकमुश्त। ये वही टेबल है जिस पर रात के कप-बस्सी अब तक ऊँघ रहे हैं।बमुश्किल खाए बिस्कुट के आधे हिस्से अभी भी यहीं रख्खे हैं।बड़ी हिम्मत से ख़रीदे गए चाईनीज एप्पल,वो भी साठ रुपये के दो पीस। एप्पल का 'सालाना '' स्वाद हमें जचा नहीं, सो पूरा कहाँ खा पाए थे रात में।उसी पहले कटे हुए एप्पल की तीन चार फाँके तो यूंही रात भर पड़ी रही,जो अब तक टेबल पर ही है।

इसी रफ्ता रफ्ता जीवन में कमर दर्द का सही सही अंदाज़ देने वाले झाड़ू,पोछा और बिस्तर समेटने के काम से लेकर दूध को पीने लायक ठंडा करने के लिए फूंक मारने तक का काम एक आदमीजात करता है।वैसे परिवार में तीन जन हैं। बीमारों का प्रतिशत  दो बटा चार है।सेवा चाकरी करने वालों की संख्या एक बटा तीन।सेवा चाकरी के बीच तमाम सलाहें और एक खिदमदगार। दूध में  लीली फिफर डाल कर गरम करने के बाद पिलाओं।तुलसी-चाय का काड़ा पिलाओं।धूप स्नान कराओ।आराम करो।फल-फ्रूट खाओ।तलीगली चीजों से परहेज करो।साफ़ रुमाल से नाक सणीको।मुआफी देना सभी मशवरों में से कुछ ही याद रहे।

अच्छा हुआ मैं 'लगभग'  प्रगतिशील हूँ वरना अभी तक की परिभाषाओं के मुताबिक़ बेटी की पोटी तो कम से कम एक 'मर्द' साफ़ नहीं करेगा। एक पिता द्वारा बच्चे की पोटी धोना एक बने-बनाए निष्कर्ष पर कड़ा तमाचा है ।ये अलहदा रविवार है भाई जिसमें आज आदमी औरत से पहले जाग गया है।ये पहला रविवार है जिसमें औरत को आराम नसीब है।ये पहला रविवार है जिस पर औरत छूट्टी पर है। ये पहला रविवार है जो खुद अटपटा रहा है।भला हो इस रविवार का जो एक स्त्री विमर्शकार आदमी की परख ढ़ंग से ले रहा है कि कहीं ये भी 'स्याला' विचारों की केवल जुगाली तो नहीं करता है?

सच बताएं पहले तो सारे अंदाजे गलत ही साबित हुए।गोया 

बर्तन साफ़ जक निकालने में कितना समय लगता है? एक मुठ्ठी चावल पकाने में कितना पानी मिलाएं? किचन के ऊपर वाले आलिये में रखी सात केटलियों में से किसमें तुअर दाल भरी गयी है।आँगन की झाड़-पोंछ के बाद भी कुछ कौने कैसे छूट जाते हैं? पीने के पानी भरते वक़्त कौनसे बर्तन मांझने है कौनसे का पानी किसमें उंडेलना हैं?

अब सब मगज में बैठ गया।अब और कितना पूछताछ कर काम निबटायेंगे? वो भी इस स्टेज पर जहां अभी तो रविवार चौथाई भी ख़त्म नहीं हुआ है।

'एकल परिवार' के 'संस्थापको'  और इसकी परिकल्पना रखने वालो,कहाँ मर गए।आओ देखो और एक आदमी की हेल्प करो।

जब औरत बीमार हैं।एक औरत को  बच्चे पालना सिखाओ जब घर में माँ-पिताजी सरीखे किरदार तुमने शुरू से ही रखे नहीं।बच्चों को 'घर' और किराए के 'मकान' में फर्क समझाओं।उन्हें तालीम दो कि हमारी जड़ें किसी और जगह हैं ।उन्हें इतना तो बता ही दो कि हम बीते दौर में इतने अकेले नहीं थे।तीमारदारी और आद-अवेर(सार-संभाल ) करते दूजे लोग भी थे घर में।इन बिगड़ते खाकों में कुछ तो तरतीब से  दो भाई।

इस नयी पीढ़ी की औलादों को बस आख़िरी बार कह दो कि एक ज़माना वो भी था जब कभी हम पड़ौसियों से इतने घुले मिले रहते थे  कि कटोरियों में सब्जियां, अचार और छाछ माँगतूंग  कर लाने में हिचकोले नहीं खाते थे।बेहिचक औरों के चूल्हे से करचू(बड़ा लोहे के चमचे ) में 'आग'(अंगारे) तक मांग लाते थे।और अब कमरे की दीवार में लगे एक दरवाजे से दिन और रात के सारे बयानात रिस रिसकर उधर जाते हैं । एक दम्पती सारा माजरा सुनता भी है।मगर सुबह के चौथाई ख़त्म होने बाद भी रात की खाँसी, उल्टी, बैचनी और हल्की-फुल्की अफरा-तफरी  पर सवेरे एक चिंकोटी तक नहीं काटता।

किसी ने कहा ''ये प्रगतिशील समाज है अभी तो आगे-आगे देखते जाओ क्या-क्या होता है ?'
 
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