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Wednesday, March 27, 2013

27-03-2013

होली के हुड़दंग के मायनों को लेकर घंटो बहस और विमर्श के बाद भी जब रंग-गुलाल चेहरे पर रंगने कोई अपना सामने आ ही जाता है तो सारे विमर्श फीके पड़ते नज़र आते हैं।आनंद का ठिकाना नहीं रहता।मगर इन्ही स्थितियों में कुछ लोग मूंह फुलाकर बैठ जाते हैं।रंग न लगाने के दस बहाने ढूंढ लाते हैं।ऐसे भी लोग शामिल है इस रंगीन दुनिया में।अफसोस इसी माहौल में हमें साँस लेनी हैं।समय बड़ा अजीब आ रहा है जहां हम एक दूजे से बतलाने तक में परहेज करते हैं वहाँ ऐसे मौके को छोड़े बगैर होली जमकर खेलना चाहिए।क्या पता हम अनजाने में उन तमाम लोगों से बोल-बतिया आ आएं जिनसे बोले सालभर हो गया।सच में जो होली नहीं खेल सके या जो इसे बच्चों का खेल मानते हैं वे आनंद बटोरने के मामले में बड़े गरीब हैं।आर्थिक युग के इस नीरस जीवन में एक होली ही तो है जो हास्य की तरफ खींचती हैं।और हम हैं कि उसमें भी नुस्क लिकालने में बड़ी शिद्धत से लगे हैं।'जल बड़ा अनमोल है' कहने में यूं तो ये बड़ा ज्ञानप्रधान वाक्य लगता है मगर पानी से लापालीप करके होली खेलना भी बड़ा आल्हादित करने लायक अनुभव होता है।

अरे याद आया हमारे गाँव में मेरी जानकारी में अब तक एक ही होली जलती आ रही है।उसे ठीक एक महीने पहले ही गाँव का बलाई कहीं से लकड़ी काट लाकर रोप जाता है।एन दिन वही आदमी उस होलिका के अगल-बगल झाड़-झंखाड़ लगा देता है।बच्चे गोबर के बनाए बडूलिए और नारियल चढ़ातेहैं।लड़कियां शक्कर/मकाणे आदि बांटती हैं।उसी दिन वही गाँव बलाई और पञ्च लोग गाँव के ढोली के साथ उन सभी के घर जाते हैं जिनके घर सालभर में कोई मौत मरण हुआ हों।मतलब 'होक का ढ़ोल' बजाने जाते हैं।वहाँ आज भी कुछ उत्सवों में बड़ी आत्मीयता बसती है।तय समय पर पंचों के सामने बलाई पूजा के बाद होली में आग लगा देता है।जलती हुई होली के इर्द गिर्द इकठ्ठे हुए लोग कपड़े की गेंद से कुछ खेल खेलते हैं।जलती होली में हाल उगे गेंहू की बालिया या चने/होरे सेक कर घर ले जाते हैं।कुछ लोग इसी वक़्त होली को ठंडा कने के लिए लौटे में लाये जल का छिड़काव करते हैं।फिर ये टोली गाँव के बीच वाले बड़े आँगन में आती हैं जहां बड़ी बड़ी लकड़ियों के साथ गैर खेली जाती है।गाँव की यादें बड़ी लम्बी हैं।यहाँ शहर में मैं उन्हें बहुत मिस करता हूँ।खासकर जब इस बार मैं होली पर यहीं शहर में हूँ।

खैर इस बार होली खेलने और खिलाने का सारा श्रेय हमारे नए मित्र राजेश चौधरी और श्रीमती चौधरी को जाता है।एक दिन पहले तय था वे घर आयेंगे।एक हम ही थे जो सुबह से बिना नहाए उनका इंतज़ार कर रहे थे।हमारे गृह मंत्री तो होली के बड़े शौक़ीन हैं।खासकर पानी वाली होली।पानी देखते ही वे आपा खो बैठती हैं।ये हम बहुत बार आजमा के देख चुके हैं।खैर हमारी पत्नी के वैसे कोई देवर नहीं हैं।बाकी मेरे अभिन्न मित्र सब अपने गांवों में जा बसे।यहाँ शहर में हमारे रंग तरस को खेलने का रिवाज़ है।कुल मिलाकर होली के इस दिन सालों से कोई घर आता नहीं।कुछ साल पहले तक हम मित्र आपस में रंग-रोगन का काम करते रहे हैं।फिलहाल ठप्प था।इस बार फिर आनंद आया।

राजेश जी कहते हैं वे जब ब्यावर में थे तब उन्होंने वहाँ होली का अच्छा रिवाज़ शुरू किया था जो आज तक जारी है।बकायदा ढोल-नंगाड़े के साथ धमाल।एक और बात कहीं मैं भूल ना जाऊं कि वे नाचने के बड़े शौक़ीन हैं।राजस्थानी लोक गीतों और ढोल पर नाचने में वे महारथ हासिल व्यक्तित्व हैं।कभी आजमा के देखें।गलत निकलूँ तो मेरा नाम भी लल्लू रख लें।राजेश जी के नए मूड को आज मैंने देखा कि वे बड़े जोली किस्म के आदमी हैं।सेन्स ऑफ़ ह्यूमर तो लाजवाब है भाई।हाँ मैं उन्ही राजेश चौधरी जी की बात कर रहा हूँ जो चिजों को बड़े गहरे अर्थों में विमर्श की हद तक ले जाते हैं।वही राजेश जी को हमारे चित्तौड़ के सबसे बड़े कोलेज में हिन्दी विभाग के खास कर्ताधर्ता हैं।ये वही राजेश जी हैं जो बड़े सिद्धांतवादी कहे जा सकते हैं।बड़े भले आदमी हैं।ये वही राजेश जी हैं जो अपने विचारों को पूरे तर्क सहित रखते हैं आज मेरे अमिताभ बच्चन वाले रंग बरसे पर ठुमके लगा रहे थे।आज उनके मिजाज में गज़ब की मस्ती और मजाक थी।

घर आये मुझे,पत्नी डॉलर उर्फ़ नंदिनी को रंगा,बेटी अनुष्का के चेहरे को पेंट किया।आखिर में मेरी नाक पर हरा रंग तोते की माफिक रंगा दिया । इस आधे दिन तक चली होली में राजेश जी ने कमोबेश सभी की नाक रंगी।होली के हुड़दंग की यात्रा कनक जैन के घर पहुँच कर एक बारी तो निराश हुई।कनक भैया असल में घर से गायब थे।भाभी जी के हाथ की बनी हुई चीजें खा-पीकर हमारी आँखों में तरावट आई।बहुत से विचार के बाद फिर हम सत्यनारायण व्यास जी के घर जा धमके।हालांकि होली के इस मजे के बीच व्यास जी के घर जाने से चल पड़ने वाले विमर्श प्रधान माहौल से मजा किरकिरा होने के पूरे चांस थे।मगर हमारी हिम्मत देखो।घर गए।पांवा धोक की रस्म के बाद पापड़-चिप्स-चाय-सकरपारे की रस्म हुई।आदत से बाज नहीं आते हुए हमने हल्का फुल्का साहित्यिक विमर्श कर ही लिया।

मौके के इस आनंद में हमने राजेन्द्र जी की फेमली को बहुत मिस किया जो अपने गाँव बिनोता गयी हुई थी।हमारी भी होली चुपचाप गुज़र जाती थैंक्स टू राजेश जी कि हम भी आज के दिन एक दो पेक ले पाए।इस आनंद में दो जगह ऐसी भी आयी कि कम पहचान के मित्रों के यहाँ हमने खुद को असहज अनुभव किया।मगर खानेपीने से सजी ट्रे से माल उड़ाने में हमारी अनुष्का ने खुद लुत्फ़ उठाया।अफसोस शुगर के कारण राजेश जी मीठा खा नहीं सके और उनके नाम के रसगुल्ले मुझे खाने पड़े।जानकार अच्छा लगा कि चलो मेरे साथ मेरे किसी और साहित्यिक मित्र को नाचने का शौख तो है।

इस मौके पर मेरी संवेदनाएं उन तमाम दोस्तों के साथ भी है जिनके परिवार में इस साल उनके किसी अपने के गुजर जाने से 'पहली होली है' वाली बात हो रही है।बहुत मुश्किल होती है जब हम किसी अपने के बगैर जीवन में उत्सवों से गुजरते हैं।
 
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