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Tuesday, October 23, 2012

23-10-2012

शहर में रात कट गयी एक सुगबुगाहट के साथ कि नवरात्रि  के दो ही दिन बचे हैं। एक अफवाह बार बार झिंझोड़ती रही कि इस बारी दशहरा मेले में कुछ अतिरिक्त ऊंचाई वाले कद के रावण दहन के साथ ही गरीबों के सारे दुःख ख़त्म हो जायेंगे। एक कोशिश करने पर पता चला कि रात मेले में एक छोकरी हंसी ठठ्ठा करके परेशान चेहरों पर मुस्कानें पोत गयी। तीस किलोमीटर की दूरी पर कुछ मंच के कवि लाखों के बदलें आंशिक  रूप से कविता की बात कर गए। रात ऐसे आराम से कट गयी जैसे टेम्पो वाले ने रेलवे स्टेशन से घर तक छोड़ने के नार्मल किराए दस रुपये प्रति सवारी में ही घर छोड़ दिया हो मानो।वो भी रात दस बजे बाद। रात भर याद आती रही कि सुबह चार-पांच बजे के उठे वे नंगे पाँवधारी लोग किले पर जाते हुए कितने ठिठुरे होंगे। रातभर नींद के समान्तर धूल उड़ती रही ठीक उसी तरह जैसे आज़कल ओवरब्रिज निर्माण से कुम्भा नगर फाटक से कलेक्ट्री तक उड़ती है।

आज सुबह शहर से गाँव तक जाती सड़क के दाहिनी तरफ एक ग्रामीण परम्परा पुलकित रूप में देखी। सारे ग्रामीण लोग-लुगाई छोरे-छोकरियाँ  एक हुजूम में तब्दील होने को आतुर। ग्राम संस्कृति में माताजी, बावजी, हजुरिये, जैसे शब्दों का दोहराव आज फिर कान के पास से गुज़रा। आँखों के सामने कुछ भोपे भाव निकालते हुए आते गए। कुछ उत्साही युवाओं के हाथ पानी के लौटे और नीम की डाली से जल छिड़कने की प्रथा का आनंद लेती आम जनता।कुछ सादगी संपन्न औरतों के माथे जवारे उगाए हुए लौटे। गाँव के ठीक बाहर तक एक मेले की तरह माहौल। ये वही सुबह थी जिसके ठीक पहले वाली रात में हुए जागरण के वक़्त एक नेजे ने जन्म लिया था। एक बड़े बांस पर छतरीनुमा आकृति। रंग बिरंगी फर्रियां। निम्बुओं के साथ तलवारें लटकी हुयी। आकाश छूती हुयी अठखेलियाँ करता बांसधारी युवक।किसी भी जाने माने टी वी शो को फेल करता हुआ गाँव का सालाना और नितांत ज़रूरी आयोजन।

कभी धूप,  घी अगरबत्ती के धुंए ने आ घेरा तो कभी जमावड़े की कानाफूसी ने। पास के एनिकट  से रुके उस बहते नाले के पानी में  एक एककर सभी भोपों ने अपने भावों को आराम दिया। कुछ भविष्यवाणियाँ एक भील भोपे के मूंह से बहती हुयी। सांकलें लगातार बजती हुयी और पीठों पर गिरती हुयी। भोपों को संभालने में तल्लीन कुछ आस्थावान युवक। किनोरों पर पंक्तिबद्द बैठकर नजारा देखती  छेवड़ेधारी(घूंघटधारी ) औरतें। एक नए नवेले युवक को भोपा बनाने की पूरजोर कोशिशें। जिसके पिताजी कभी भोपाजी रहे होंगे शायद। ग्राम बालिकाओं की सपाट मुस्कराहट की तरह बहुत कम मगर हंसी मजाक का माहौल भी यहाँ दिखा। रात कट जायेगी इस सन्नाटे भरी दुनिया में उन सादे वाद्ययंत्रों के सहारे जहां सिर्फ बज रही थी एक पीतल की थाली ,एक ढ़ोल , और एक मांदल (ढोलक का ही एक रूप जो भीलों के नाट्य 'गवरी में बजा करता है )
 
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