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Monday, October 22, 2012

22-10-2012

सालों बाद अपने इष्ट मित्रों के साथ चौबीस घंटे गप्प लड़ाए। कल दोपहर से अपने तीन सदस्यीय एकल परिवार के साथ पहुना निवासी पक्के बामण प्रवृति के धनी प्रवीण कुमार जोशी का इंतज़ार किया, जिसके एक-एक लड़का-लड़की हैं। संयुक्त परिवार से निकल एक दिन निकाल कर आ गया ये ही हमारे बीच चर्चा का विषय था। चित्तौड़ से निम्बाहेडा बस द्वारा वो भी शम्भुपुरा वाली धूलभरी  सड़क से होकर। सफ़र बाप रे किसी नारकीय जीवन सा ही था। कुल मिलाकर हम तीन धन चार सात टिकट थे। रोडवेज के टिकट बाबू से चार जवान लोगो के टिकट लिए। एक घंटे में कई बार उलटियाँ होने को आयी। मगर हम सभी कठ्ठे रहे। आखिर निम्बाहेड़ा आया जहां राष्ट्रीय स्तर  के दशहरा मेला का आयोजन चल रहा था। यहाँ आने का बड़ा कारण उस दोस्त जितेन्द्र सुथार का मन रखना ज्यादा था जो बहुत जिद्दी  किस्म का आदमी था। खैर उसकी मनुहारें भी हमें वहाँ तक खिंच ले गयी थी।

वहाँ पहुंचते ही बारात की तरह वो भी स्वागत मगर अपनेपन से लबरेज़। मूंह धोते ही चाय हाज़िर। हाथ-पाँव धोते ही खाना हाज़िर। घर से मेले जाने को मन हुआ तो टेम्पो हाज़िर। सारी चीज़ें मानों एक योजना के तहत उपस्थित हो रही थी। शाम होते होते हमारे एक और एकलखुरे  दोस्त राजू लाल तेली तेली उर्फ़ रजनीश साहू के एकल परिवार का आगमन हुआ। साथ थे भाभी जी और कथित रूप से शैतान बेटा दर्शील। राजू का इंतज़ार हम सभी में हमारी पत्नियां इस लिहाज से भी कर रही थी कि वो ही एक मात्र मेहनती दोस्त था जो उनके हित रसोई में देर तक खप सकता था। खानेपीने के काम में रमने वाले मन के धनी राजू का भी अंदाज़ बड़ा रोचक था। इस तरह कुछ दोस्त हास्य उपजते हुए प्रतीत होते हैं।

रात के नौ से बारह तक मेले में टल्ले खाए। पत्नियों ने अपनी आदत का खासा परिचय देते हुए कुछ सामान  खरीदे। एक जोड़ी चप्पल, आँगन में चिपकाने के बने बनाए मांडने, एक दर्ज़न कप-बस्सी, एक झुनझुना, एक बन्दूक, एक धोवणा, पचास के तीन जोड़ मोज़े, कुछ देवी देविताओं की तस्वीरें, सर्दी से बचाता एक ऊनी टोपा यही कुछ याद रहा। सभी के पास आते समय एक एक थैला ठसाठस। हम सभी दोस्त अपने छ: बच्चे अदलबदल  कर खिलाते-घुमाते और चकरी-झूले में झुलाते रहे। कभी बच्चों की इधर उधर सामानों पर केन्द्रित हो उठती हुयी अंगुलियाँ दबाते रहे। उन्ही बच्चों की मस्ती के बीच रोने-रूठने की सूरत में उन्हें मनाते रहे। घंटा भर तो ऐसा भी बीता जब पत्नियां श्रृंगार वाले मार्केट में घूम हो गयी। हमारे पास बच गए बच्चे। कुछ नए ढंग के विमर्श का भी अवसर पाया।

धाप कर खाया ,पिया और मोज किया। बच्चों के जमावड़े से निकली चिल्ला-चोट से थोड़ा सा परेशान। तेज़ थकान के बाद भी कुम्भ में बिछड़े साथियों के मिलन सा अवसर पाकर हम दोस्त रात में गप्पे बाजी करते रहे। आज सुबह  फिर टेम्पो से निम्बाहेडा के अम्बा माता मंदिर जाना हुआ। टेकरी बार बना एक अच्छा मंदिर।शहर में गिनती के टेम्पो से एक को मनाकर किराए पर लिया।घर से चले घर तक आये। महज सौ रुपये। बहुत हद तक सस्तावाड़ा है यहाँ। पूरे शहर  में नए कारखाने वंडर सीमेंट के प्रचार बेनर। पचास किलो का एक कट्टा 280 रुपैये में। ये वही शहर था जहां मैं 1995-97 तक ग्याहरवीं-बाहरवीं पढ़ा।आज शाम होते होते फिर से चित्तौड़ आये तीन परिवार।राजू और प्रवीण के साथ मेरा परिवार।लौट कर बुद्दू घर को आये।एक आनंद दायक अनुभव के साथ।अपनेपन से भरे चौबीस घंटे।जिसमें दिनांक,वार तिथि सब भूल गए।काश ऐसा  होता रहे जहां भागादौड़ी की ज़िंदगी में सही मायने में ज़िंदगी को अनुभव कर सकें।

''डायरी रिश्तों के बीच गायब होते अपनेपन की है। डायरी उन अवसरों के बखान की है जहां अपनेपन को फिर से महसूस किया जा सके। डायरी दोस्तों के व्यक्तित्व पठन की आदत की है। डायरी उस शहर के हालत की है. डायरी मेले के अंदाज़ की है।डायरी में सिर्फ नाम भरना मेरी मज़बूरी थी सो अपनों के नाम उंदेल दिए वरना डायरी मित्रों के बीच पनपे खालीपन में हुए विमर्श के वर्णन की है। डायरी में उस वक़्त के समय और समाज को लिखने भर की है हां आज का ये अंदाज़ ज़रूर कुछ हल्का लगा होगा माफी चाहता हूँ''
 
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