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Thursday, October 4, 2012

04-02-2012

गांधी जयन्ती पर वैष्णव जन तो जैसे भजन को बिगड़ी हुयी राग में  गलों से निकलते सुना था। स्कूल में गांधी के मायने सिखाते हुए दिन बीतना तय था। मैं सुबह सवेरे बेटी अनुष्का को गांधी जी से मिलाने ले गया था। वो भी पार्क में लगी मूर्ति से।कहने लगी  शाम को मैं भी गांधी जी के बर्थ डे में जाउंगी केक  खाने। उसके ज़वाब पर मैं निरुत्तर था। 

मुझे उन्हें माला पहनाने से ज्यादा उन लोगो को देखने में रूचि थी जो गांधी जी के नाम से दिखावा करते हुए कुछ तामझाम जैसे आयोजन को पूरते हैं। तमाम मुद्राओं में फोटो खिंचाते और छपाते लोग। कैमरे से निकलते सभी क्लिक के बीच रुकरुक कर सांस लेती गांधियन विचारधारा। इसी बीच कहीं से मध्यम रोशनी में बैठे लाल बहादुर शास्त्री जी नज़र आये। मगर रोशनी की कमी से वे आखिर तक लोगों को नज़र नहीं आये। इधर उजाले में होकर भी गांधी के असल मायने धुंधले ही रहे। टीवी ,अखबार और रेडियो पर दो अक्टूबर के ढ़ोल पीटे जा रहे थे। सर्वधर्म प्रार्थना सभा ख़त्म हुयी। अफसोस चाय केले जैसे कुछ नहीं बांटा गया जिसके लिए कुछ लोग आये थे। कुछ हाथ मिलाने आये तो कुछ शक्ल दिखाने। कुछ को अपनी हाज़री भरानी थी। कुछ को साथ निभाने की मज़बूरी यहाँ तक खिंच लाई। कुछ अपनी विचारधाराओं से गांधी को अलग समझ घर ही बैठे टी वी देखते रहे। कुछ को वैचारिक जुगाली सुनाने की पड़ी थी। कुछ अपनी दुकानदारी सझाये ग्राहक संभाल रहे थे।

ये मौसम असल में न अब बरसात का रहा न ही पूरी तरह से सर्दी का। ये मौसम एकांत जगहों पर कविता संगोष्ठी करने,किसी नेता के अभिनन्दन में नाचने और रेडियो के लिए गीतों भरी कहानियां रचने का है। ये मौसम सत्यनारायण समदानी जैसे संस्कृतिकर्मी के लिए मीरा महोत्सव में व्यस्त होने का है। स्पिक मैके  के विरासत जैसे आयोजन की समाप्ति पर आराम का है। मौसम किसी  मित्र के खेत पर भुट्टे खाने और बिना जाने समझे खाली खेतीबाड़ी के हित में कसीदे पढ़ने का है। किसी अभिन्न मित्र ने कहा वक़्त सही मायने में चुप रहने का है।वक़्त सही समय के इंतज़ार करने का है। मगर हम बेवज़ह चिल्लाने में अपनी एनर्जी लगा रहे हैं।

इसे बीच तीस सितम्बर को अपनी माटी  के बेनर तले एक कविता गोष्ठी त्रिवेणी हुयी। पहली और अचानक बनी योजना का परिणाम। गोष्ठी मतलब एक सौ बीस रुपैये का बेनर,बीस के भाव से तीन किलो केले,एक सौ चालीस के भाव से आधा किलो नमकीन,तीस रुपये किराए पर दो जाज़म, कुछ कागज़ की प्लेटे, प्लास्टिक की गिलासे,चाँद एस।एम्।एस। ,कुछ फोन कोल्स,एक प्रेस विज्ञप्ति,थोड़े से फोटो।।किले के रतन सिंह महल में ग्यारह के तय समय वाली बैठक का पौने बारह बजे शुरू करना। डेढ़ घंटे तक केवल कविता। इसी में शामिल हैं भाभी जी के बीमार होने से घर का काम निबटा आये कनक भैया  का संचालन, चाय की दूकान से मासिक अवकाश पर छूटे हुए रमेश प्रजापत। मुश्किल से रविवार के दिन चित्तौड़ रुके हुए योगेश कानवा जी। डॉ सत्यनारायण व्यास और राजेन्द्र सिंघवी जैसे ज़रूरी लोगों के बगैर गोष्ठी का आनंद हमारी गुस्ताखी थी। बिना ज्यादा ज़रूरी प्रयास के तेरह साथियों का जमावड़ा हुआ। आयोजन स्थल के लिए तारीफों के पूल। बस आज इतना ही।
 
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