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Monday, August 27, 2012

27-08-2012

आजकल में जीवन 
उदास दिन और खाली रातें। खासम-ख़ास के स्मरण में बनती-बिगड़ती बहुत सी छोटी कवितायेँ। बिना फेरबदल की दिनचर्या और जीवन के बड़े हिस्से का कुछ हद तक ख़त्म हो जाना। एक तरफ सलाह-मशवरा करती और लगातार खपती हुयी अर्धांगिनी तो दूसरी तरफ बचपन के भरोसे बड़े होते बच्चों की आँखों में अभिभावकों के तैरते हुए सपने। मेरी हित दिनभर की कलाकारी में सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूलों का अहसास संगत में बजता है। एक तरफ गोरधन जैसे दीन छात्र तो दूसरी तरफ अंगरेजी में चहकते हुए रेड,ग्रीन और येल्लो डे मनाते बालक। एक तरफ ककहरा सीखती हुयी नन्ही जान है तो दूजी तरफ जीवन के ककहरे में मात खाते-खिलाते ये दिन-रात। बतियाने में कठिन शब्दों के हिस्से खा जाती बेटी का लगातार चहकना उत्साह की फसल पैदा करता है। वक़्त के साथ बढ़ती हुयी पगार वाली सरकारी नौकरी के साथ चिंताएं जबरन दिए उपहार की मानिंद लगती हैं। फोन-फान पर बतियाने को कुछ चुने हुए दोस्त। निपटाने को बाकी कामों की एक लम्बी सूचि। फिर भी लगता है मानो पहले की तरह अब सफ़र उतना कंटीला नहीं रहा। 

कभी कभार हाथों में डाक से पहूंची हुयी साफ़-सुथरी किताबें इठलाती है। आधे दिन में पूरी होती दिनभर की नौकरी का आनंद और अहसास रविवार को छोड़ अक्सर मेरे साथ चलते हैं। भले रोज़ धूलभरे रास्ते पर झोखिमभरा जीवन हों मगर वहीं एक दायित्व का निपटान भी पूरा होता है। बातों के बीच ज़िक्र में आती अखबारी खबरें अपना प्रभाव छोड़ने आ दिखती हैं। दुपहर से शाम तक नींद और खयालबाजी में कटता समय। सहसा मिले एकांत में नज़र के सामने आ टपकता किला। कभी अविराम दृश्यों में हाल की बारिश से उबकती गंभीरी नदी तो कभी पानी डूबे खेत,कुए और पूल दिखते हैं। इस तरह अगले दिन की सुबह को सोचते हुए गुज़रती शाम। भरपेट खाना रात को नींद दे ही जाता है।एक बड़ी खबर और टीवी के बिना आसानी पार होता जीवन का डेढ़ महीना जल्द गुज़र गया।कभी-क रवीश कुमार,पुण्यप्रसून वाजपेयी,अभिज्ञान प्रकाश याद आये। बाकी खेरियात। एक जगह से खबर आनी थी,आई नहीं। दिल थोड़ा सा परेशान हैं।काश कोई उनकी खबर दे कर नींद के खलल को ख़त्म कर दे। 
 
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