अतीत में लौटने
की पगडंडी
गाँव भी
हो सकते
हैं। हरियाले
खेतों की
जाजम पर
कही कहीं
छपे डिजाइन
की तरह
गाँव। बरगद
की विशाल
जड़ों से
लटकते उन्मुक्त
बच्चों में
गाँव हुलसता
है। बातों
में अक्सर
पीछे छूटते
और यादों
के सफ़र
पर दूर
तक ले
जाने के
हिमायती गाँव
का आभारी
हूँ मैं।
शहर जा
बसे बेटों
के हिस्से
में माँ
के उलाहने
और पिता
का नि:शब्द चेहरे
से लगातार
देखना लिखा
हैं गाँव
में। संकड़े
रास्ते। आगे
जाकर बंद
होती गलियाँ।
राह रोकती
एक जगह
ठहरी हुयी
बेमालिक की
सी भैंसे।
थक हार
खेतों से
लौटते किसान
परिवार और
रोटी की
तेज होती
आग से
तपते हुए
पेट।पुरातन पहचान वाले चेहरों पर
लीपा आधुनिक
अनजानापन खलता
है।ऊपर से ग्लोबलाईजेशन
का प्रत्येक
असर खुद
में समेटे
और उसे
पूरने को
पर्याप्त उतावले
गाँव। पहाड़
के पीछे
मूंह छीपा
कर अपना
रोना रोते
गाँव। कहीं
बाँध भरने
पर उबकते
पानी से
लबालब बह
निकली
नहर को निहारते गाँव। कहीं
फेक्टरियों की विकसित होती उम्र
और उनकी
ज़बर सफलता
पर अबोले
की तरह
देर तक
चुप्पी साधे
गाँव। ग्रामीणों
की खुसर-फुसर सहित
हर तरह
के गाँव
मौजूद है
ज़माने में।
मुख्य बस्ती
से दूर
कुछ अछूत
घरों की
बस्तियों के
जन्मदाता गाँव।
डाबरे और
किंचड़ सने
रास्तों को
सहते और
गूंगेपन
की हद तक जाते बेचारे
गाँव।
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» 26-08-2012