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Tuesday, June 26, 2012

25-06-2012

दिन की घटनाएं।
(1)
राजस्थान के सभी सोलह आकाशवाणी केन्द्रों के हेड की एक बैठक चित्तौड़ में पांच-छ; जुलाई को तय हुयी।हमारे पर्याप्त युवा और नवाचारी प्रोग्राम ऑफिसर योगेश जी कानवा और निराले अंदाज़ के धनी,सरलमना इंजिनियर जे.के.पुरबिया के साथ आयोजन की व्यवस्थाओं को लेकर बातचीत हुई।अचानक आये आयोजन की ज़िम्मेदारी का तनाव एक विलग अनुभव था।इस उम्र के अधियाने तक हम ऐसे अनुभव के आदी हो चुके थे।स्नेहवश ये ज़िम्मेदारी से जुडी बातें योगेश जी ने मुझे बतायी।एक फोन के बाद हम शाम पांच बजे जिंक नगर के गेस्ट हाउस में थे। तय मामले की तरह इंपीरियल क्लब के कर्ताधरता और हमारी इस बातचीत के मध्यस्त जी.एन.एस.चौहान वहाँ मौजूद।मुख्य बात इंटक के नेता घनश्याम सिंह जी राणावत से होनी थी।सवा पांच हुए होंगे कि  हम पाँचों एक  बड़े हौलनुमा ए .सी. रूम में थे।

राणावत  जी ने बीते दौर की बातें छेड़ डॉ. इन्द्र प्रकाश श्रीमाली के समय की आकाशवाणी को याद किया। मैंने पहले हुए ज़िक्र के मुताबिक़ डॉ.पल्लव के सम्पादन मन निकल रही बनास जन पत्रिका का वो अंक दिया जिसमें कथाकार और राणावत जी के मित्र स्वयं प्रकाश जी  के संस्मरण छपे थे।बहुत बेबाकी से लिखे उन संस्मरणों में जिंक के बारे में पढ़ना चौंकाने वाला है।खैर कोई दस मिनट भी बात हुई होगी और हमारी चाय बन कर आयी ही थी कि  जिंक फेक्ट्री में कोई बड़ी दुर्घटना की खबर आ गयी। उस माज़रे में हमने लगातार फोन पर बतियाते एक मज़दूर नेता की बैचैनी देखी।बारबार खबर लेता जिंक प्रशासन देखा।पोस्टमार्टम से जुडी फोन पर बतियाने की शब्दावली सुनी . एक आदमी के मरने पर बीस लाख के मुआवज़े के वायदे और टेबल टोक की आहट सुनी। खैर अपने काम में पूरे सहयोग के वादे को सुनकर हम इस शिष्टाचार भेंट से  निश्चिन्त हो बैठक  से बाहर आये और दुर्घटना की बात से चिंतिंत हो घनश्याम जी और चौहान जी अस्पताल के लिए निकलें।

(2)
रात होते होते भोपाल से हमारे साथी और कला लेखन के एक बड़े नाम विनय उपाध्याय का फोन आया।सहसा बहुत देर तक बात चल पड़ी ।डाक से कुछ ज़रूरी सामग्री भेजने/पहूँचने  की बात से शुरू हुई बतकही कब आज के दौर के संक्रमित माहौल पर टीका-टिप्पणियाँ करती हुयी बड़े और लोकप्रिय दिखने वाली शक्सियतों के मन में भरे मेले तक पहूंची,पता नहीं लगा।वे बातों बातों में कुछ समय पहले अमिताभ बच्चन के भोपाल में एक महीने प्रवास और 'आरक्षण' फिल्म निर्माण के दौर की बातें करने लगे।सच बात ये भी है कि विचारों में कडुवी जुबां आदमी के साथ बीती परिस्थितियों से उपजती है। कड़वे अनुभव भी आदमी को कितना चिंतन करने के विषय दे सकते हैं यही कुछ उनकी बातों का मसौदा था। उन्होंने कलाकार प्रजाति के दोगलेपन को उकेरा कि कैसे कई बार ये लोग जब मंच और ग्रीन रूम में अलग अलग बर्ताव करते हैं। अजीब आभास होता है।नितांत व्यावसायिकता के दौर में कलाकार भी जिन चरित्रों का अभिनय करता हुआ और कलाओं को जीता हुआ आगे बढ़ता है वो उसका दूसरा रूप होता है। असल में वो  एक व्यापारी होता है।इसलिए कई मर्तबा लगता है कि जिस हद तक हम भाव-विभोर हुए जाते हैं असल में उस हद तक डूबना बेवकूफी हो जाती है।वैसे कलामना लोग कहाँ जो अन्दर और बाहर एक सा होते हैं।
 
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