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Monday, December 26, 2011

26-12-11

सवेरे के सवा दस बजे की बात होगी,चित्तौड़ दुर्ग के मेरे सबसे पसंदीदा रतन सिंह महल की छत पर.पत्नी की फिरसे पढ़ने की ललक के चलते हाल उन्हें एक शीतकालीन अध्ययन कार्यशाला में छोड़ आया.ढाई साला बेटी अनुष्का मेरे साथ थी.बोधि प्रकाशन,जयपुर से छपी जानी मानी लेखिका ममता कालिया की किताब 'पढ़ते,लिखते,रचते' पढ़ा रहा था.साथ में मैंने आम पति की जात का परिचय देते हुए कई काम लेकर घर से शहर को निकालने की आदत को कायम रखा.मेरे पास बाईक की सर्विस डायरी,आयकर का वेतन विवरण,जीवन बीमा की किस्त का चेक,क्रीम वाले बिस्किट का एक पुडा,कुछ चिप्स के पैकेट,ऊपर से बानी का बाटला.यूं लगभग आधे दिन तक छोटे बच्चों के रखने/संभालने का अतिरिक्त दायित्व था मुझ पर 

पढ़ते-पढ़ते ममता कालिया जी को मोबाईल मिलाया.एक ही घंटी पर उठाते हुए उन्होंने मेरे और शहर के बारे में बहुत देर तक पूछा-पाछी किया.वे जयपुर से छोटे किसी भी शहर में अब तक नहीं आ पाई थी.बात कुल जमा डेढ़ मिनट हुई.वे एक पाठक के मूंह से अपनी कलम की प्रसंशा सुन रही थी.और मैं किसी बड़े रचनाकार से बात कर खुद को ज़मीन से दो अंगुल ऊपर.वे फुल कर कुप्पा भी नहीं थी, मगर खुश थी,इस बात का पता उनकी रेडियो के माफिक दानेदार आवाज़ से चल ही गया.ठीक ही रहा उन्होंने बातचीत में बहुत आत्मीयता बरती,वरना बड़े कलमकारों के बारे में मेरी अब तक की राय कहीं हिचकोले खा जाती.
 
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